Book Title: Gomtesh Gatha
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 177
________________ के यही वे प्रत्यंग हैं, जो अपनी इकाई में अनुपात के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं, और अपनी समन्विति में भाव की सृष्टि करनेवाले होते हैं। इन्हीं का तालमय निर्वहन कलाकार की साधना और सिद्धि का प्रमाण होता है । इनकी लयात्मक संयोजना के अभाव में सारी रचना निर्जीव और निष्प्राण-सी लगने लगती है । अब उसी लयात्मक संयोजना की अवतारणा करने में रूपकार एकाग्र होकर लगा था। अब रूपकार के आग्रह से विन्ध्यगिरि पर सामान्यजनों का आवागमन निषिद्ध कर दिया गया था। थोड़े से सहायक और जिनदेवन ही, तीन चार दिन से, वहाँ तक पहुँच पाते थे। ऊपर पीत वितानों का मण्डप-सा तानकर, प्रतिमा का ऊर्ध्व भाग पूरी तरह आच्छादित कर दिया गया था। कलाकृति, कलासाधना और कलाकार तीनों ही जग की दृष्टि से ओझल होकर जैसे वहाँ एकाकार हो रहे थे। पथिक, तुम यही सोच रहे हो न, कि अब मुझे भी वह सब दिखाई देना बन्द हो गया होगा ? तुम्हारा सोचना ठीक भी है, यहाँ से अब किसी को कुछ भी दिखाई नहीं देता था। पर मुझे इससे क्या अन्तर पड़ता था ? मैं तो छैनी का प्रत्येक स्पर्श, और कलाकार का उच्छ्वास तक यहाँ अनुभव कर रहा था। क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि ये चिक्कवेट और दोड़वेद, केवल ऊपरी सतह पर पृथक् हैं। ये चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि, धरागर्भ में मूलतः एक हैं, अखण्ड ही हैं। वहाँ जो कुछ हो रहा था, वह मेरा अपना ही परिणमन था। मुझे उसका प्रतिपल संवेदन हो रहा था। ___कलाकार की कला-साधना अब कठोर हो गयी थी। प्रातःकाल केवल एक बार वह नीचे उतरता। नित्यक्रियाओं से निवृत्त होते तक अम्मा जल और दुग्ध लेकर पहुँच जातीं। एक बार जितना जो कुछ ग्रहण कर लिया, वही और उतना ही उसका आहार था। भोजन ग्रहण किये आज उसे तीसरा दिन था। जिनदेवन ने आज उससे भोजन का आग्रह किया भी, परन्तु निषेध आया अम्मा की ओर से—'मैं अपने बेटे की हठ जानती हूँ। अब वह कार्य समापन करके ही अन्न ग्रहण करेगा।' ___ सातवें दिन वह शुभ घड़ी भी आ गयी जब रूपकार ने अपनी कृति निष्पन्न होने की घोषणा कर दी। उस दिन प्रातः दो-तीन घड़ी तक उसके सूक्ष्म उपकरणों ने, मूर्ति के नेत्रों की अर्धोन्मीलित मुद्रा को अंकित करके, अपना कार्य समाप्त कया। प्रतिमा पर उपकरणों का यह अन्तिम स्पर्श था। दीर्घकाल की साधना के उपरान्त, अपनी गोमटेश-गाथा / १४६

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