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३०. परिग्रह का अभिशाप
दूसरे दिन रूपकर कुछ अधिक उत्साह से भरा हुआ दिखाई दिया। उसके हाथों में अधिक गतिशीलता परिलक्षित हुई। छैनी हथोड़ी चलाते ही वह अनेक बार भीतर ही भीतर अपने कल्पनालोक की परिक्रमा कर आया । एकाध बार तो अपनी कल्पित स्वर्णकुटी का द्वार खोलकर, उसकी कल्पना ने, परोसे हुए स्वर्ण-थाल का स्पर्श भी कर लिया। उस दिन तक्षण भी कुछ अधिक ही हुआ। बटोरे गये पाषाण के भार का आकलन करते हुए, आज पहली बार रूपकार ने, अपने दिनभर के अर्जन का अनुमान किया। प्राप्त होनेवाली स्वर्णराशि की कल्पना से उसे संतोष न होता, ऐसा कोई कारण नहीं था। उस रात अम्मा की चरणसेवा करने का उसने विशेष ध्यान रखा। परन्तु उसका लालसाग्रस्त मन, शयन से पूर्व एक बार, संचित स्वर्णराशि का दर्शन करने की अभिलाषा का भी दमन नहीं कर पाया।
न जाने क्यों इतना उत्साहित और इतना प्रसन्न होने पर भी रूपकार उस रात ठीक से सो नहीं सका। कल तो निद्रा में उसने स्वप्न देखा था, पर आज तन्द्रा की स्थिति में ही बार-बार वह स्वर्णकुटी उसके दृष्टिपथ में आती रही। उसे लगा कि उसके अपने हाथों में ही अक्षय स्वर्ण-भण्डार छिपा है। उसके सस्ते लौह उपकरण वास्तव में सोने की खान हैं। वह विक्षिप्त-सा बार-बार पूर्व दिशा की ओर झाँकता । उसका मन कहता था कि कब सूर्योदय हो । कब वह विन्ध्यगिरि पर पहुँचे, और कब अपनी छैनी से, अपने लिए स्वर्ण झराना प्रारम्भ करे।
प्रातःकाल कुछ शीघ्र ही उस दिन यहाँ आकर रूपकार ने जिनवन्दना की। आचार्यश्री आज प्रातःभ्रमण के लिए सम्भवतः कुछ दूर निकल गये थे। उनके लौटने की प्रतीक्षा भी उसे असह्य हो उठी। आज