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उसी की सेवा-सम्हार की आकांक्षा, जिस प्रकार यहाँ आत्मदर्शन में बाधक है, उसी प्रकार वहाँ झरते हुए व्यर्थ पाषाण के संकलन की लगन, उसे स्वर्ण से तौलने की आकांक्षा, उस परम सौम्य वीतराग छवि के तक्षण में मुझे बाधक हो रही है। जड़ से अनुबन्ध तोड़कर ही जैसे चेतन सें साक्षात् किया जा सकता है, उसी प्रकार यह स्वर्णानुबन्ध तोड़कर ही वीतराग अपरिग्रही मुद्रा का अन्वेषण मेरे लिए सम्भव होगा । उस वीतराग सौम्य मुद्रा को दृष्टि में लाकर एकाग्र मन से ही यह साधना पूरी हो सकेगी।
गोमटेश-गाथा | १४१