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किया। उन्हें भविष्य के लिए सुरक्षित करने का प्रयास भी किया, परन्तु अपने आपको जानने का यत्न उसने कभी नहीं किया। अपने 'स्व' से जुड़ने की उसकी प्रवृत्ति बनी ही नहीं। आत्म-आनन्द की निर्झरिणी में वह कभी भीगा ही नहीं। अपने भविष्य की सुरक्षा का कोई उपाय उसने आज तक किया ही नहीं।
-अज्ञानी जीव 'स्व' को भूलकर 'पर' में आनन्द मान बैठा है। आज भी वह निरन्तर उस 'पर' की ही उपासना में अपने जीवन की सार्थकता मान रहा है। अहर्निश उसी के संकलन में वह संलग्न है। संसार के वे पदार्थ, जो तृप्ति के नहीं, तृष्णा के हेतु हैं, संतोष के नहीं, आकांक्षाओं के जनक हैं; शाश्वत नहीं हैं, क्षणभंगुर हैं, स्वतः विनाशवान् हैं, वह उन्हीं में तृप्ति, संतोष और शाश्वत कल्याण ढूँढ़ता है। जो प्रकट ही 'पर' है, उन्हें ही अपनेपन की दृष्टि से देखता है। जो स्वतः ही उससे विलग हैं, छूट जानेवाले हैं, उन्हीं के पीछे वह जन्म से मृत्यु तक भटकता है। 'पर' को पाने की यह लालसा ही 'परतन्त्रता' है। 'स्व' की उपलब्धि का विज्ञान हो 'स्वतन्त्रता' है। __-अपने आपको पहचानने और पाने की यह प्रक्रिया, प्राणियों के लिए अत्यन्त सरल है। आत्मा तो नित्य शाश्वत, चेतन तत्व है। वही तो तुम्हारा अस्तित्व है। उसे कहीं से लाकर उपलब्ध नहीं करना है। अपने ही भीतर उसका अभिज्ञान करना है। ___--यह जो जिज्ञासा करता है, यह जो उत्तर और समाधान प्रस्तुत करता है, यह जो उस व्यवस्था को ग्रहण और धारण करता है, यही वह आत्मतत्व है। यह आत्मतत्व 'पर' की संगति से विकारी बना भटक रहा है। क्रोध, मान, मायाचारी, प्रलोभन, इच्छा, अभिलाषा आदि विकारों में डोलना इसका अपराध है। इन विकारों से पृथक् अपने चेतनस्वरूप के द्वारा इसकी पहचान करना ही, आत्मा का अन्वेषण है। इन विकारों का अभाव करके इस स्व' तत्व का ग्रहण ही आत्मोपलब्धि है।
--अपनी अप्रिय विकारी दशा को छोड़ना ही श्रेयकर है। -फिर जो शेष रहे वही अपना वैभव है। -अनावश्यक का विमोचन ही आवश्यक की उपलब्धि है। -अप्रिय का तिरस्कार ही इस प्रिय का सत्कार है। -अशाश्वत का विसर्जन ही शाश्वत का उपार्जन है। -विभाव का पराभव ही स्वभाव का उदय है।
- 'पर' का विमोचन ही 'स्व' का स्रजन है। --पवन की प्रेरणा से उठनेवाली तरंगों के शान्त हो जाने पर, जैसे
गोमटेश-गाथा | १३६