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३३. शाप का विमोचन
रूपकार को अब मार्ग दिखाई दे गया । उसे स्वतः अपनी व्यथा का निदान मिल गया। पीड़ा-मुक्ति का उपाय भी उसके समक्ष स्पष्ट हो गया । ठीक ही तो कहा उन करुणाधारी गुरुदेव ने – 'पर को पाने की लालसा ही परतन्त्रता है ।' कैसा पागल हो गया था मैं ? मेरे भगवान् बाहुबली तो उस विन्ध्यशिला में विराजमान हैं। उन्हें कहीं से लानाबनाना नहीं है । अपनी स्वतन्त्र साधना - अर्चना के बल पर केवल उन्हें रूपायित करके लोक के लिए दृष्टिगम्य कर देना ही मेरी सेवा है।
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स्वर्ण- ग्रहण की परतन्त्र आकांक्षा का ही ग्रहण लग गया है मेरी स्वतन्त्र साधना को । मैंने स्वयं ही बिसार दिया है अपनी सिद्धि-सम्पदा को । पाषाण से स्वर्ण की तोल करना, एक का संग्रहकर दूसरे को फेंकना, क्या यह माटी से माटी का ही विनिमय नहीं है ? अब बन्द करना होगा मुझे यह खेल । स्वयं ही तोड़ना होगा मुझे लालसा का वह चक्रव्यूह, जिसमें मैं स्वयंमेव फँस गया हूँ। दूसरा कौन इसका प्रतिकार करेगा ?
नहीं, अब एक पल भी नहीं । तृष्णा के उस नागदंश को निर्विष करनेवाली नागमणि जब हाथ लग गयी है, तब अभी, यहीं, इसी समय होना चाहिए उस पीड़ा का उपचार । पारिश्रमिक के व्यामोह से उबरकर ही मेरा सृजन सम्पन्न हो सकेगा ।
अम्मा के पुकारने पर ही रूपकार की विचार-शृंखला भंग हुई। आचार्यश्री के समीप जाकर दोनों ने नमन किया । अम्मा ने बेटे की व्यथा कहने का उपक्रम किया परन्तु महाराज ने वर्जना कर दी'भद्र ! निःशल्य होकर स्वयं अपना अभिप्राय कहो ।'
रूपकार अपने संकल्प पर अब तक दृढ़ हो चुका था । उसका आत्मविश्वास जागृत हो चुका था । विनयपूर्वक करबद्ध खड़े होकर उसने