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पाये हुए शिशु की तरह बिलख उठा।
अम्मा ने सिर पर हाथ फिराते हुए अपने भटकते बेटे को दुलार दिया। उनके भीतर का आक्रोश अभी निश्शेष नहीं हुआ था। गंग राज्य के राज्यशिल्पी की वे पत्नी थीं। आज उनका पुत्र उस पद पर आसीन था। कला की साधना के लिए आत्मसंयम की महत्ता उन्हें भलीभाँति ज्ञात थी। गरम लौह पर आघात करके उसे ठीक समय पर, ठीक आकृति देने की कला उन्हें भी आती थी। नेह और क्षोभ मिश्रित वाणी में उन्होंने अपने मन की समस्त वेदना पुत्र के समक्ष प्रकट कर दी___'तुझसे क्या कहूँ रे ! कैसे समझाऊँ कि यह कला तेरा अजित वरदान नहीं है। यह तेरे पूर्वजों की साधना है। बड़े संयम-जतन से इसका निर्वाह करना पड़ता है। वर्षों तक कभी दूसरा भोजन, और तीसरा वस्त्र, जाना नहीं हम लोगों ने। इतने निस्पृह रहे तेरे पिता, तभी उन्हें यश मिला। उन्होंने कभी पारिश्रमिक ठहराया नहीं, माँगा नहीं, लिया भी नहीं। मूर्ति की प्रथम वन्दना की जो न्यौछावर मिल जाती थी, बस वही था उनका पारिश्रमिक। वे कहा करते थे—'साधना को पारिश्रमिक की तुला पर चढ़ाने से साधक का अन्त हो जाता है। उसकी खोखली देह भले ही डोलती रहे, भीतर का कलाकार फिर जीवित नहीं रह जाता।' ___ 'तूने भी पहिले क्या कभी माँगकर, अनुबन्ध करके, पारिश्रमिक लिया है ? नहीं जानती इस बार यह तुझे क्या हो गया है ? भूल गया, क्या कहा था तेरे पिता ने तेरे गुरुमन्त्र में?' ___ 'लोभ और अहंकार, यह दो लुटेरे हैं इस साधना के मार्ग में। इनसे सदा सावधान रहना । सदा इनसे बचाना अपनी साधना को।'
'उनका गुरुमन्त्र स्मरण कर वत्स ! आज वे यदि यह मूरत बनाते, तो सहस्र भार स्वर्ण के बदले भी अपनी साधना को, तुला पर नहीं चढ़ाते।' ___ 'भला हुआ जो शीघ्र तुझे बुद्धि आ गयी। प्रातः का भटका पथिक सन्ध्या तक पाँथ निवास में लौट आया, तो उसे कोई भटका नहीं कहता। जा, अपने मन को स्थिर कर। अपनी कला की साधना कर। वही साधना तेरी यथार्थ जननी है रे ! मेरी कोख से उपजा तेरा शरीर किसी दिन खो जायगा, परन्तु कला की कोख से जन्मा तेरा यश, तुझे अमर करेगा। जाकर बैठ उन्हीं अनगढ़ कामदेव के चरणों में। वही पूर्णकाम, मेरी और तेरी, सबकी कामना पूरेंगे।'
मातृत्व की संजीवनी का संस्पर्श और मन को मथ जानेवाली यह
गोमटेश-गाथा | १३३