________________
साथ कहा____ 'देखें तो रे ! कौनसा काँटा तेरे भोजन में और काम में बाधक हुआ है, तीन दिन से । क्या अपनी दीदी को भी नहीं बताएगा?' ___'सो क्या तुमसे छिपी है मेरी यातना। जानता हूँ अम्मा ने कहा होगा तुमसे। कुमार भी देख रहे हैं मेरी दुर्दशा। मैं किस से क्या कहँ ? तृष्णा की नागिन का ऐसा दंश लगा है मुझे कि मेरे हाथ कीलित हो गये हैं। मेरी साधना कुण्ठित हो गयी है । कैसे होगा इसका प्रतिकार दीदी ? मैंने संकल्प कर लिया है, भोजन आज भी नहीं करूँगा, और कल प्रातः तक यदि नहीं लौटा मेरा विश्वास, नहीं बहुरा मेरा वरदान, तो फिर कभी देख नहीं सकोगी मेरा मुख। इसी पर्वत की किसी शिला से सिर टकराकर अपने शापग्रस्त जीवन को समाप्त कर लूंगा।'
आँसुओं से आच्छादित रूपकार का मुख, पश्चाताप के आवेग से दयनीय हो उठा। कुमार ने कन्धे पर हाथ धर कर उसे सान्त्वना दी। उसकी पीड़ा से द्रवित सरस्वती ने कोमल-सा आश्वासन दिया___ 'ऐसा कुछ नहीं होगा भ्रात ! तेरी साधना कहीं गयी नहीं, वह तो तुझसे अभिन्न है। आवेग शान्त होते ही वह अवश्य प्रकट होगी। पर अनशन करने से क्या होगा? फिर तुझे ज्ञात है ? कटक में कोई निराहार रह गया, तो जान पाने पर वापाजी कैसी प्रताड़ना करेंगे? जानता नहीं कितना कड़ा है उनका अनुशासन, कितनी तीक्ष्ण है उनकी दृष्टि, क्या मेरे लिए विपदा बुलायेगा?' __ सरस्वती ने अपने मर्यादित व्यंग्य से वातावरण की गम्भीरता को और सहज किया
'हाँ मरण का विचार उत्तम था। उसमें सारी समस्याओं का समाधान है। पर उसमें भी मुझे एक बाधा दिखाई देती है। कटक को तो मन्त्रों से बाँध रखा है पण्डिताचार्य ने। वहाँ तो उनकी आज्ञा के बिना रोग, मरी, भूत, प्रेत और मृत्यु, किसी का भी प्रवेश हो नहीं सकता, और इस पर्वत पर केवल सल्लेखना या समाधिमरण ही सम्भव है, सो उसके लिए आचार्यश्री की सहमति अनिवार्य है।'
_ 'तब ऐसा कर वीरन ! मेरी क्षेम-कुशल के लिए तो चलकर भोजन कर ले, और प्रातःकाल अपने सारे संकल्प-विकल्प रख दे आचार्य महाराज के समक्ष। फिर जैसी उनकी आज्ञा हो वैसा ही करना। कोई नहीं रोकेगा तुझे।' ___'चल रे सौरभ, मामा को घर ले चल। भोजन में विलम्ब हो रहा
गोमटेश-गाथा | १३५