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सरस्वती का आदेश था तो सौरभ के लिए, पर उसका पालन करना था जिनदेवन को। तुरन्त ही रूपकार के कन्धे पर हाथ रखे वे पत्नी और पुत्र के साथ व्यस्त-भाव से नीचे की ओर चल पड़े।
सरस्वती के सम्बोधन से रूपकार को बहुत ढाढस बँधा। अपनी दशा से वह सचमुच बहुत भयभीत हो उठा था। किसी भी प्रकार वह इस नागिन से पीछा छुड़ाना चाहता था। उसका अधूरा कार्य उसे पुकार रहा था। अपनी साधना से पल-भर का भी बिछोह अब उसे भारी लग रहा था। वह आश्वस्त हुआ कि प्रातःकाल आचार्य महाराज के समक्ष मन की पूरी आकुलता उघाड़कर रख देने से उसका समाधान हो जायेगा। उन अपरिग्रही महाव्रती के पास इस परिग्रह-पिशाच मोचन का मन्त्र अवश्य मिलेगा। यही सब सोचते हुए उसने सोने का उपक्रम किया।
मन को तरह-तरह से समझाते हुए, रूपकार ने निढाल होकर अपने आपको निद्रा के अंक में डाल तो दिया, परन्तु उसका अवचेतन मन अभी भी ऊहापोह में डूबा था। निर्दोष और निर्बाध निद्रा आज भी उसके भाग्य में नहीं थी। अर्द्धरात्रि में उसने पुनः स्वप्न देखा-स्वर्ण का वही पर्वत, वैसा ही ढेर। अन्तर केवल इतना कि आज वह स्वयं उस पर्वत के नीचे दब गया है, दबता जा रहा है। उस भार से उबरकर बाहर निकलने का उसका कोई प्रयत्न सफल नहीं हो रहा । प्रतिपल वह भार बढ़ता ही जा रहा है। उसकी स्वांस तक रुद्ध होना प्रारम्भ हो गयी। सहायता के लिए दूर-दूर तक कोई भी वहाँ दिखाई नहीं दे रहा। सहसा उस भार तले से उसकी आँखें दो गतिमान चरणों को अपनी ओर आता देखती हैं। साड़ी की कोर बताती है, कि वे उसकी ही जननी के शरणभूत चरण हैं। वह अपने तन मन की पूरी शक्ति लगाकर पुकार उठाअम्मा : T...T... ___ मन्द दीपक के झीने उजास में, लगभग टटोलते हुए, वृद्धा अपने पुत्र की चटाई तक पहुँची। लेटे हुए भयाक्रान्त बेटे के माथे पर हाथ फेरकर उन्होंने कहा, 'लगता है सपने में डर गया है रे ! न जाने क्या-क्या तो विचारता रहता है आजकल। चिन्ता करने से काम तो होगा नहीं। इस दुविधा को छोड़ना ही होगा बेटा। चल, सो जा, मैं बैठी हूँ तेरे पास। प्रातः आचार्य महाराज के पास चलकर तेरा उपाय पूछंगी।'
थोड़ा-सा सरक जाने पर ही रूपकार का सिर जननी की जंघा पर टिक गया। उनका ममता भरा हाथ अभी भी उसके माथे पर था। रूपकार को लगा कितना अभय है अम्मा की गोद में। धीरे-धीरे वह आश्वस्त हुआ, उसकी आँखें झपने लगीं।
१३६ / गोमटेश-गाथा