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सिर पर था, दूसरे हाथ से वे पोदनपूर के यूवराज के मस्तक का स्पर्श कर रहे थे। सबके आनन पर सूक्ष्म मनोभावों का कल्पना-थकित नर्तन हो रहा था। शब्द वहाँ वर्जित थे। उस दुर्लभ-दृश्य की महिमा कथनीय नहीं, केवल दर्शनीय थी। भरत को प्रकृतिस्थ जानकर उन्होंने महाबली का हाथ भरत के हाथों में दिया, पलक उठाकर एक बार दोनों पर दष्टि डाली, फिर शान्त गम्भीर उन योगीश ने नीची दृष्टि किये मन्द गति से वन की ओर पग बढ़ा दिये।
पहला पग उठा तभी वन्य पुष्पों की एक. भरी-भरी अंजरी उस वैरागी के पथ पर बिखर गयी। अगला पग उठा और वह सुरभित पुष्पावलि पथ को ही ढाँक गयी। वीतराग दष्टि उठी, योगी ने लक्ष्य कियापोदनपुर की राजमहिषी नहीं, चिरसंगिनी जयमंजरी, पुत्र की बाहों के सहारे पर अवलम्बित, (अखण्ड सौभाग्य की अक्षय पुष्पांजलि-सी) प्रियतम के पथ को प्रसून-मदुल करने कीस्नेह-सिक्त कामना को रूपायित करती-सी, अन्तर के श्रद्धा-सुमन, नयनों के मुक्ताकण, हाथों के पुष्पपुँज, पथ पर बिखराती हुई पार्श्व में खड़ी थी। अरुण कपोलों पर बड़े-बड़े दो मोती, वेदना की शुक्ति से निसृत हुए थे, या हर्ष का पारावार अन्तर से छलका था। कौन पहिचान सका, थाह किसे मिल पायी, सागर नहीं था, वह नारी का मन था। योगी की दृष्टि जिस गति से उठी थी उसी--- क्षिप्र गति से लौटी और पथ पर एकाग्र हुई, चरणों की गति में तनिक भी व्यवधान लक्षित नहीं हुआ।
गोमटेश-गाथा / १०१