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अवश्यम्भावी हो जाता है । पराजय ही तब हमारी नियति होती है ।'
—'कषाय के वशीभूत होकर आज हम दोनों ने उस पराजय की पीड़ा भोगी है भ्रात ! भविष्य में ऐसी पराजय न देखना पड़े, इसी का उपाय अब हमारे जीवन का पुरुषार्थ है । पिताश्री के मार्ग का अनुसरण करके हम अब उस युद्ध में उतरना चाहते हैं जिसमें अन्तर के शत्रु परास्त हो जाते हैं। जीतने पर जहाँ शाश्वत विजय प्राप्त होती है । पराजय की आशंका ही जहाँ निर्मूल हो जाती है । व्यर्थ का मनस्ताप मेंट कर तुम्हें भी अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इस हठी अनुज ने बहुत क्लेश दिया है तुम्हें । सदा की तरह इसे क्षमा कर देना भइया ।' वाक्य पूरा करके बाहुबली ने वन की ओर अपनी दृष्टि उठायी ।
अग्रज ने रूठे हुए अनुज को एक बार और मनाना चाहा, पर वाणी ने उनका साथ नहीं दिया । दौड़कर वे उस रमते जोगी के चरणों में गिर गये। उन गमनोद्यत चरणों को भुजाओं में भर लिया और चीख पड़े'नहीं, नहीं, नहीं कुमार । इतना कठोर दण्ड भरत नहीं सह पायेगा ।' बार-बार उनके मुख से निकलते ये शब्द उन्हीं की सिसकियों में एक रूप होकर रुदन बनते रहे । उनका खण्डित अहंभाव पिघल - पिघल कर बाहुबली के चरणों पर बिखरता रहा ।
बाहुबली स्तम्भत खड़े थे। जिन अग्रज को उन्होंने पिता की तरह आदर दिया था, उन्हीं भरत का सिर आज उनके चरणों में लोट रहा था । मोह की जटिलता कैसी विचित्र है । राग का नागपाश कितना सशक्त है ? मेरी हठधर्मी ने कितनी वेदना दी है भरत को ? सोच-सोच कर क्षमासिन्धु बाहुबली का हृदय पसीज उठा । उनकी अनुकम्पा अश्रुकणों का रूप लेकर भरत के सिर पर बरस पड़ी। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, वात्सल्य और ममता की पंच धाराओं से उन दोनों भ्राताओं का तन और मन सराबोर हो गया । बाहुबली के करुणा - विगलित नेत्रों के पवित्र जल से भरत का राज्याभिषेक हो रहा था । उसी समय भरत की अश्रुधारा के प्रासुक उष्णोदक से बाहुबली के चरणों का दीक्षाभिषेक हो रहा था। दोनों भ्राताओं के भीषण संघर्ष का साक्षी वह जनसमुदाय, उन्हीं भ्राताओं के अलौकिक अश्रु-अभिषेक को अब विस्मित होकर देख रहा था ।
बाहुबली ने भरत को उठाया और गले से लगा लिया। उनके सिर पर हाथ फेरते हुए वे उन्हें मौन सान्त्वना देते रहे। उसी समय महाबली ने चरणों पर मस्तक रखकर पिता को प्रणाम किया । पुत्र को भी बाहुबली भ्राता के साथ ही भुजाओं में भर लिया। उनका एक हाथ चक्रवर्ती के १०० / गोमटेश - गाथा