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२९, तृष्णा का दंश
रूपकार अब मूर्ति के सृजन में तन-मन से तल्लीन हो गया। उसके कुशल और अभ्यस्त हाथ, अनेक प्रकार के छोटे-बड़े, तीक्ष्ण-मोंथरे, हल्के और भारी, उपकरणों का सहारा लेकर, मेरे सहोदर के उस अनगढ़ भाग को मनोहारी मानव-आकार में परिवर्तित कर रहे थे। पाषाण में छिपा हुआ प्रभु का रूप प्रतिक्षण प्रकट होता आ रहा था। अनेक सहायक शिल्पी तक्षण में उसकी सहायता करते थे। पर्वत को उस प्रतिमा के
चरणों से नीचा, सानुपातिक काटने और रूप देने का कार्य, वास्तुकारों द्वारा समान्तर ही चल रहा था। काटे हुए पाषाणखण्डों को हटाने में श्रमिक-समूह अनवरत संलग्न था।
प्रतिमा के अंगोपांगों का अंकन करते समय रूपकार के उपकरणों द्वारा अब जितना भी पाषाण झरता था, उसे एकत्र किया जाता था। थोड़े-थोड़े दिनों के अन्तराल पर उसकी तौल का स्वर्ण, भाण्डारिक द्वारा रूपकार को प्रदान कर दिया जाता था। इस कल्पनातीत पारिश्रमिक ने रूपकार को प्रमुदित कर दिया था। वह अपने भविष्य के प्रति निश्चिन्त
और आश्वस्त हो गया था। प्रतिमा के समापन तक एक पुष्कल स्वर्णभण्डार उसके पास अर्जित हो जायेगा, यह कल्पना उस श्रमजीवी शिल्पी के लिए सचमुच सुखद थी। प्रतिदिन प्रातः वह यहाँ आता था। देवदर्शन
और गुरुवन्दना करके, नवीन स्फूर्ति और उत्साह के साथ जब वह यहाँ से विन्ध्यगिरि की ओर अपने काम पर जाता, तब उसका आत्मविश्वास और उसका दृढ़ संकल्प, उसकी आँखों से झाँकता था। उसके विश्वास भरे पाद-निक्षेप से अनेक बार उसके मन की दृढ़ संकल्प शक्ति का, मैंने स्वयं अनुभव किया था।
आचार्य महाराज और चामुण्डराय प्रतिदिन ही निर्देश-परामर्श देने