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नहीं पा रही थी। उनकी वाणी मक थी परन्तु भंगिमा भ्राता से क्षमा की भिक्षा माँग रही थी। ग्रीवा तक बहती अश्रुधार, उनकी मनःस्थिति को उन्हीं के वेदना विदीर्ण मुख पर चित्रित करती जा रही थी।
बाहुबली का नवनीत-सा कोमल हृदय भरत के मनस्ताप से द्रवित हो गया। अग्रज का लज्जानत, निस्तेज मुख देखकर करुणा से उनके नेत्र सजल हो गये। शान्त मन से उन्होंने भरत को सम्बोधन दिया
'तुम्हारा कुछ दोष नहीं भइया ! कषाय का उद्रेक ऐसा ही दुर्निवार होता है। परिग्रह की लिप्सा अनर्थों की जड़ है। पर-स्वामित्व की लालसा ही हमारी परतन्त्रता है। हमें परतन्त्रता का यह दुखद बन्धन तोड़ना ही होगा। हमने राज्य त्यागकर दीक्षा लेने का निर्णय कर लिया है। हमारे कारण तुम्हें इतना संक्लेश हुआ, इस अपराध के लिए हमें क्षमा कर देना। तुम बड़े हो, जो कुछ हुआ उसे बिसार देना। तुम्हारे चक्र को आयुधशाला तक जाने में अब कोई बाधा नहीं होगी। अयोध्या का सिंहासन अपने स्वामी की प्रतीक्षा कर रहा है।' ___'बड़े तो तुम हो कुमार! अपनी ही करनी से आज यह भरत छोटा हो गया है, लज्जित करके उसे अब और छोटा मत करो। अयोध्या का सिंहासन, यह चक्र, यह सारा साम्राज्य अब तुम्हारा है, इसे स्वीकार करो। इस हारे हुए योद्धा से अयोध्या का सिंहासन लांक्षित ही होगा। इसे तो अपनी अपार क्षमा की थोड़ी-सी ज्योत्सना प्रदान करके, अपने हित का मार्ग ढूँढ़ने दो। भूल सबसे होती है भ्रात, किन्तु क्षमा करने की उदारता सबमें नहीं होती। वह जिनमें होती है वही महान् होते हैं। उन्हीं की पूजा करके यह संसार पवित्र होता है।' हाथ जोड़कर भरत ने उत्तर दिया। उनकी अधीरता देखकर बाहुबली ने उन्हें पुनः समझाया_ 'तुम अकेले पराजित नहीं हुए भइया ! आज तो हम दोनों ही हारे हैं। युद्ध की जय-पराजय तो योद्धा के जीवन का अंग है। इसमें पराजित होना हारना नहीं कहलाता। अपने भीतर पनपते हुए शत्रुओं से हारना ही हमारी हार है। राग, द्वेष के वशीभूत हो जाना ही सबसे बड़ी पराजय है। कषायों के उद्रेक ने हम दोनों को अभिभूत कर लिया अतः पराजित तो हम दोनों ही हुए हैं।'
–'सृष्टि का शाश्वत नियम है भइया, कि जब हम कषाय के शिखर पर आरूढ़ होते हैं, तब केवल अपने ही पाने और खोने के लेखे में खो जाते हैं। अपनी ही जय-पराजय तक हमारी दृष्टि सीमित हो जाती है। उचित-अनुचित, नीति-अनीति, कुछ भी फिर हमें दिखाई नहीं देता। तब हमारा संतुलन, किसी न किसी क्षण बिगड़ता ही है। हमारा पतन
गोमटेश-गाथा | ६६