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बेसुध-सी पड़ी थीं। बाहुबली जिस ओर गये थे, टकटको बाँधकर भावशून्य नेत्रों से, अब तक वे उसी ओर ताक रही थीं। हाथों में सिर थामकर महामन्त्री चक्र से शकट का सहारा लिये बैठे थे। _____ महामन्त्री ने अनुभव किया, आज सर्वाधिक दुखी और संतप्त कौन है ? राजमहिषी नहीं, महाबली नहीं, वह थे भरत । भरत के अन्तर की वेदना अभी तक नेत्रों से झर रही थी। महामन्त्री के मन का ताप भी कम नहीं था, परन्तु युद्ध में एक भी जीवन नष्ट नहीं हुआ, दोनों भ्राताओं ने एक दूसरे को क्षमा कर दिया, यह तथ्य उन्हें आश्वस्त कर कर रहा था। बाहुबली की क्षमा ने और भरत के पश्चाताप ने इक्ष्वाकु वंश की मर्यादा बचा ली थी। दोनों भ्राताओं के मिलन से ऋषभदेव की कीर्ति पर लगता हुआ कलंक धुल गया था। अब अयोध्या लौटकर राजमाताओं के सम्मुख खड़े होने का साहस उनमें लौट आया था। - श्मशान की शान्ति जैसी उस निस्तब्धता को सर्वप्रथम महामन्त्री ने ही भंग किया। भरत के हाथ अपने हाथों में लेकर, झकझोरते हुए उन्होंने सम्राट को सान्त्वना देने का प्रयास किया___होनहार तो होकर रहती है महाराज। होनी को टाल सकें या उसे परिवर्तित कर सकें, ऐसी शक्ति त्रैलोक्य में किसी के पास नहीं। जो घट जाता है। उसमें हर्ष विषाद का अनुभव, सुख-दुख का वेदन, दीनचित्त हम लोग, अपनी कषाय के अनुरूप करते हैं। यही कर्म की अधीनता है। किन्तु धीर पुरुष घटनाओं से विचलित नहीं होते। हर्ष-विषाद से ऊपर उठकर समता दृष्टि से कर्मोदय का कौतुक, वे साक्षी बनकर देखते हैं। यही सम्यक् पुरुषार्थ है।'
–'बाहुबली लोकोत्तर व्यक्ति हैं। उन जैसे क्षमाशील भ्राता के अग्रज होकर आप धन्य हो गये। अपनी भूल का तत्काल परिमार्जन करके आपने भी अलौकिक सरलता का परिचय दिया। आप जैसा निर्मल चित्त, निर्लेप वंशज प्राप्त करके मनु महाराज का वंश धन्य हो गया। आप दोनों भ्राताओं की जीवन-ज्योत्सना से ऋषभदेव की कीर्ति का पारावार कल्पान्त तक तरंगित रहेगा।'
-'आप चक्रवर्ती हैं महाराज। साम्राज्य का संरक्षण और प्रजा का पालन आपका कर्तव्य है। पोदनपुर के युवराज, अयोध्या के अमात्य, सब आपके आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। दिग्विजय के यात्रा थकित सैनिक घर लौटकर विश्राम के आकांक्षी हैं, इन्हें उपकृत कीजिए स्वामी।' कर्तव्य की ओर ध्यान जाते ही भरत का ताप कम हुआ। अपनी
गोमटेश-गाथा / १०३