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दिया, दावानल की भस्मक दाह भी उसके सामने शीतल ही प्रतीत होती। जिसने भी सुना अवाक होकर रह गया। अनेकों को तो समाचार की सत्यता पर विश्वास ही नहीं हुआ। वे उसकी पुष्टि के लिए, जैसे खड़े थे वैसे ही कटक की ओर दौड़ पड़े।
'बाहुबली की उद्दण्डता की क्या कोई सीमा नहीं है, दीदी ! उसने भरत का अनुशासन नकार दिया। सुनती हूँ अग्रज के विरुद्ध युद्ध ही उसे प्रिय हुआ है। यह क्या हो गया है उसकी बुद्धि को ?' आकुलित महारानी सुनन्दा दौड़ी हुई यशस्वती के कक्ष में गयीं और मन की व्यथा का संकेत देती हुई उनके समीप ही बैठ गयीं।
सन्ध्या का धुंधलका अभी पूरी तरह नहीं उतरा था, पर कक्ष के भीतर अन्धकार व्याप्त हो चुका था। महारानी यशस्वती एक कोने में चौकी पर बैठी थीं। जब कोई उत्तर नहीं मिला तब सुनन्दा ने लक्ष्य किया, वाण-विद्ध पक्षी की भाँति मर्माहत, वे अर्द्धमूच्छित-सी वहाँ भीत से टिकी थीं। नेत्रों से बहकर अश्रुओं की धारा परिधानों को आर्द्र कर चुकी थी। सुनन्दा को समझते देर नहीं लगी कि माता के मन को आहत कर जानेवाला वह समाचार, उन्हें प्राप्त हो चुका है और थोड़े ही क्षण पूर्व वे बिलख-बिलख कर रो चुकी हैं । वे अभी भी बिसूर रही थीं। - 'यह क्या करती हो दीदी !' सुनन्दा ने दोनों हाथ उनके गले में डाल दिये। उसी क्षण महारानी कटे हुए वृक्ष की तरह उनके अंक में गिर गयीं। पीड़ा का ज्वार एक बार पुनः पूरे वेग से बह उठा। सुनन्दा के मन में प्रयत्न करके बाँधा गया धीरज का बाँध भी, उसी वेग के आघात से छिन्न-भिन्न हो गया। एक ही क्षण में वे दोनों माताएँ एक-दूसरे के अंक में करुण-क्रन्दन कर उठीं। प्रकृतिस्थ होने पर यशस्वती ने ही कक्ष की नीरवता को भंग किया___'मेरे उस बेटे को कुछ मत कह, सुनन्दा ! बाहुबली का इसमें कोई दोष नहीं। पिता से प्राप्त राज्य में ही वह सन्तुष्ट और सुखी था। छह खण्ड पृथ्वी का स्वामित्व तो भरत का अभीष्ट बना है। इसी ने इस संघर्ष का बीज बोया है। बाहुबली ने जन्म तेरी कोख से लिया, पर वही मेरा सबसे लाड़ला बेटा बनकर रहा। मेरी इस भावना का सबसे अधिक अनुभव भरत को है। आज जननी की उस ममता का भी यदि भरत को संकोच नहीं है तो और किसी से मैं क्या कहूँ ?' ___'मैं भरत की टेक जानती हूँ। वह मुड़ेगा नहीं। इस सम्बन्ध में मेरी तेरी वर्जना भी वह नहीं सुनेगा। किन्तु देखती हूँ इस संघर्ष में गहरी आत्म-वेदना उसे भोगनी पड़ेगी। इस भ्रातृ-युद्ध में जय और पराजय,
गोमटेश-गाथा / ८५