Book Title: Gomtesh Gatha
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 112
________________ भाग्य की दी हुई उपाधि है। निष्कण्टक साम्राज्य की स्थापना करके उस कर्मोदय का नियोग पूरा करना सम्राट का कर्तव्य है। राष्ट्र की मर्यादा को पारिवारिक सम्बन्धों की तुला पर कभी नहीं तौला जाता। विजय यात्रा में किया हुआ अयोध्या के वीर सैनिकों का महान् परिश्रम क्षणिक भावुकता पर निछावर कर देना, कैसे उचित कहा जायेगा?' यह महासेनाध्यक्ष का निवेदन था। 'तुम्हारा विचार सम्यक है सेनापति। निरंकुश और आतताई, प्रजापीडक शासकों को जीतने के लिए शस्त्र-प्रयोग आवश्यक था, किन्तु बाहबली-जैसे न्यायप्रिय, और प्रजावत्सल शासक के साथ युद्ध क्या बहत अनिवार्य है ? क्या समझौते का उपक्रम करके राष्ट्र की मर्यादा का निर्वाह नहीं हो सकता?' __'युद्ध की भेरी अयोध्या से नहीं बजी महाराज ! हमने तो कूटनीतिक आमन्त्रण ही पोदनपुर भेजा था। पोदनपुर-नरेश ने सम्राट के संकेत का समादर नहीं किया। वे स्वतः युद्ध के लिए उतावले लगते हैं । संघर्ष अभी भी इस अभियान की अनिवार्यता नहीं है। अयोध्या की योद्धा-पंक्ति के दर्शन मात्र से, बड़े-बड़े नरेशों के मुकुट सम्राट के चरणों में झुके हैं । युद्धस्थल में आते-आते बाहुबली के मन में भी विवेक का उदय हो सकता है। अभियान हमें अविलम्ब करना चाहिए।' आधी घड़ी तक सभा में सन्नाटा छाया रहा। महाराज भरत के पास इन तर्कों का कोई उत्तर नहीं था, परन्तु उनका मन प्रलय के समुद्र-सा उद्वेलित और अशान्त हो उठा था। उनके आनन पर चिन्ता, खेद, क्षोभ और आक्रोश की रेखाएँ एक के उपरान्त एक आती दिखाई देती रहीं। एक दीर्घ निश्वास के साथ उन्होंने दृष्टि ऊपर उठाई और उनकी धीरगम्भीर वाणी सभा-भवन में गँज उठी_ 'यदि समग्र छह खण्ड पृथ्वी का सार्वभौमिक शासन ही चक्रवर्ती की अनिवार्यता है, चार धनुष धरती का समझौता भी यदि उसकी प्रभुता को खण्डित करता है, तब जो उस प्रभुता का समादर नहीं करे, चक्र की शक्ति का अनुभव ही उसका भाग्य होना चाहिए। पोदनपुर के विजय अभियान में बिलम्ब करने का सेनापति के लिए अब कोई कारण नहीं है।' मर्माहत अयोध्या ___ भरत के निर्णय की सूचना एक ही घड़ी में दावानल की तरह अयोध्या में फैल गई। उस अप्रिय संवाद ने प्रजा-जनों को जैसा मनस्ताप ८४ / गोमटेश-गाथा

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