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थे, उधर राजमाताओं की कातर मुख-मुद्रा उनकी कल्पना-दृष्टि में झूल रही थी। उनके नेत्रों से निराशा और वेदना की दो उष्ण धाराएँ निकलीं
और सघन श्वेत मूछों में विलीन हो गयीं। वे अपनी पीड़ा को पीने के प्रयास में संलग्न हो गये। ___घण्टे की टनकार के साथ ही दृष्टि-निक्षेप की स्पर्धा प्रारम्भ हुई। बाहुबली आयु में कनिष्ठ थे, परन्तु शरीर की ऊँचाई में वे भरत से बड़े थे। बीस-इक्कीस के अन्तर में भरत बीस थे, बाहुबली इक्कीस थे। अब दोनों भ्राता आमने-सामने ही खड़े थे। निशस्त्र और शान्त भरत उन्हें आज भी सदैव की तरह प्रणम्य अग्रज ही दिखाई दिये। वैसे ही स्नेहशील, उतने ही करुणामय। एक निमिष के लिए उनकी दृष्टि भरत की दृष्टि से मिली, परन्तु उन्हें उसमें द्वेष, या क्रोध का किंचित् भी पुट दिखाई नहीं दिया। अपनी ओर निहारते हुए भरत की वह मुद्रा उन्हें सदा की तरह सामान्य ही प्रतीत हुई। भ्राता से दृष्टि मिलाये रखने का यह प्रयास बाहुवली को अशक्य लगा। ऐसी धृष्टता उन्होंने खेल-खेल में भी कभी नहीं की थी। उनकी दृष्टि अग्रज के मुख से हटकर सदा की तरह उनके चरणों पर केन्द्रित हो गयी। पल भर को ऐसा लगा जैसे बाहुबली ने अग्रज का अभिवादन कर लिया हो।
भरत के पद-पद्म बाहुबली की दृष्टि के प्रिय विश्राम स्थल रहे हैं। प्रायः वार्तालाप में, आपस की मन्त्रणा में, अनेक बार देर-देर तक उनके नयन, भ्रात-चरणों के अपलक अवलोकन का आनन्द उठाते रहे हैं। नत नयन होकर, वरिष्ठजनों के चरणों की ओर दृष्टि रखकर वार्तालाप करना ही, अयोध्या के राजकुल की परम्परा रही है । भरत-बाहुबली से लेकर कालान्तर में राम-लक्ष्मण तक उस राजमर्यादा का अविच्छिन्न निर्वाह हुआ है। उसी अभ्यास और मर्यादा से बँधी बाहुबली की अपलक
और अकम्प दृष्टि अग्रज के चरणों में स्थिर हो गयी। उनके नत नयन अर्धोन्मीलित लग रहे थे। भरत का आपाद मस्तक रूप उन नयनों में समाता जा रहा था।
मन के ऊहापोह से उबरकर भरत ने जब बाहुबली की ओर ध्यान दिया, तब अनुज की दृष्टि अपने चरणों पर टिकती हुई उन्हें भी अभिवादन की मुद्रा-सी ही लगी। 'विजस्व बाहुबली' अनजाने में अनायास ही उस सहज अभिवादन का शाश्वत प्रत्युत्तर भरत के मन में गूंज उठा। आशीर्वाद के उस आंतरिक गुंजन के साथ, उनके होंठ भी स्पंदित हुए परन्तु इतने धीमे, ऐसे अस्पष्ट, कि किसी भी कान में वे शब्द सुनाई नहीं दिये।
६२ / गोमटेश-गाथा