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भरत ने अनुभव किया बाहुबली उदास थे। उनके शरीर की अलौकिक सुन्दरता को, मनकी उदासी ने द्विगुणित कर दिया था । प्रातः की धूप में खिला हुआ कमल, असमय घिरी घटाओं की छाया पड़ने पर आहत छवि होकर, जैसे अधिक आकर्षक लगने लगता है, बाहुबली का सदा प्रमुदितमुख, विषम परिस्थितियों की छाया में, भरत को वैसा ही मनोहर लगा । बहुत समय से बिछुड़े कामदेव भ्राता का वह चिरपरि चित सुन्दर मुख, नीलोत्पल से दीर्घ नेत्र, सघन - श्यामल, केश, विशाल वक्षस्थल, आजानु प्रलम्ब भुजाएँ, भरी हुई गोल-गोल जंघाएँ और सानुपातिक सशक्त शरीर ज्यों ही भरत ने देखा, थोड़ी देर तक वे उसे देखते ही रह गए। वे विचारने लगे - ' तनिक भी परिवर्तन तो नहीं हुआ हमारे भ्राता में । कुमार अवस्था में जैसा भोलापन इस आनन पर खेलता था, जैसी निर्मल स्निग्धता इस दृष्टि में तैरती थी, आज तक वह सब वैसी ही तो है । अवज्ञा, या उद्दण्डता की छोटी-सी झलक भी तो नहीं है इसकी भंगिमा में । ऐसे अनुज के साथ संघर्ष, विधि की यह कैसी विडम्बना है ? '
भरत को लगा यह चिर-परिचित छवि तो अपलक देखने के ही योग्य है । युग-युग तक ऐसे ही ऊर्ध्व मुख होकर निहारते रहें तब भी इसे निहारते रहने की पिपासा बनी ही रहेगी। वह तृषा कभी शान्त नहीं हो सकेगी। कौन जाने इस संघर्ष की क्या परिणति हो ? फिर कब अनुज की यह मोहिनी मूरत देखने को मिले ? मिले भी या नहीं, तब क्यों न एक बार दृष्टि भर निहारकर इस अपरूप छवि को सदा के लिए अपनी पलकों में मूँद लूँ । क्यों न एक बार उस तृप्ति को जी भर कर आस्वाद लूँ ।
इन्हीं विचारों में खोये भरत ने सम्मुख खड़े बाहुबली को एकटक निहारते - निहारते कब दोनों नयन मूँद लिये, वे स्वयं भी नहीं जान पाये । प्रवर परिषद् के सदस्यों ने घण्टा ध्वनि के साथ उनकी पराजय की घोषणा कर दी तभी उनकी दर्शन- समाधि भंग हो सकी । पराजय के क्षणों में भी भरत के मुख पर तृप्ति का आनन्द झलक रहा था । चरणों की ओर झुकते अनुज को बाहों में भरकर उन्होंने छाती से लगा लिया ।
जल-युद्ध
समीप के सरोवर में जल-युद्ध प्रारम्भ हुआ। दोनों प्रतिस्पर्धी छाती तक गहरे जल में आमने-सामने खड़े होकर एक दूसरे पर जल- निक्षेप करने लगे। दोनों के हाथों में लहरों-सी क्षिप्रता और वज्र - सी शक्ति थी ।
गोमटेश - गाथा / ६३