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आतं-पुकार की अनुगूंज उन्हें अन्तर में सुनाई दी–'कुमार क्षमस्व।'
जल की धारा से पावक का प्रकोप जैसे शान्त हो जाता है, यथार्थ के चिन्तन से बाहुबली का आवेश उसी प्रकार शान्त हो गया।
कषाय के घनान्धकार में विवेक की बिजली कौंध गयी। समकित की ज्योति-किरण चिन्तन को आलोक दे गयी। बज्रपुरुष के वक्ष में वात्सल्य और विराग की सरिता-सी फट पड़ी। विजयगर्व से अकडता मस्तक विनय से नत हो गया।
अतुलित बलशाली उन हाथों ने भरत को धीरे से उतारा और सम्मान सहित धरती पर खड़ा कर दिया।
शान्त, मौन अन्तर्मुख बाहुबली, विचारों में लीन हो गये। संसार की लीला के चिन्तन में खो गये। परिणति का चक्र और चक्र की परिणति __धरती पर पाँव टिकते ही भरत वहीं जैसे लज्जा से गड़ गये। ग्लानि की एक भस्मक ज्वाला उनकी एड़ी से चोटी तक चली गयी। कुचले हुए फणवाले क्रुद्ध फणधर की तरह वे प्रतिहिंसा से उबल पड़े। क्रोध के आवेश में उस समय उनका विवेक तिरोहित हो गया। विचारने की सामर्थ्य लुप्त हो गयी। नेत्र अंगार की तरह लाल हो गये। पूरे गात में कम्पन होने लगा। अपनी धरती पर बाहुबली का अस्तित्व उन्हें असह्य हो उठा। कोपावेश में सहसा उन्होंने शत्रु-संहार के लिए चक्र का आवाहन कर लिया। वह चक्र, जिसका वार अमोघ ही होता है। विरोधी का शीश काटकर ही जिसकी गति थमती है। चक्रवर्ती के चक्र का निवारण कर सके ऐसी कोई शक्ति संसार में किसी के पास होती ही नहीं। वही विनाशक चक्र, अपनी तीव्र गति से भन्नाता हुआ बाहुबली के मस्तक की ओर जाता लोगों ने देखा।
भरत का यह नीतिविरुद्ध आचरण देखकर समुदाय में हाहाकार मच गया। महाबली के साथ ही पोदनपुर के अनेक सैनिक तलवारें निकाल कर हुंकार उठे।
'हाय, स्वामी ने यह क्या किया।' अनेक स्वर थे गूंज उठे।
'यह अन्याय है महाराज ! वीरता पर कलंक है।' महामन्त्री अधीर होकर चिल्ला पड़े। किन्तु तभी सबने देखा, चट्टान की तरह अडिग बाहुबली की ग्रीवा के समीप जाकर चक्र की गति सहसा रुद्ध हुई। उनके मस्तक की तीन परिक्रमा करके, अपने स्वामी के आदेश की अवज्ञा करता हुआ वह दिव्य-चक्र मन्द गति से उन्हीं के पास लौट आया।
६६ / गोमटेश-गाथा