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१७, बाहुबली चरित्र : पूर्व कथा
विविध पुराणों और कथाशास्त्रों का अवलोकन करके महामात्य ने बाहुबली के पुण्य चरित्र का अध्ययन किया था । उसी आधार पर अपनी सान्ध्य गोष्ठी में उन्होंने अनेक दिनों तक उनका गुणगान किया । महामात्य की वर्णन शैली मनोहर और सहज ग्राह्य होती थी । उनके मुख से पुराण- पुरुषों की जीवन- घटनाएँ सुनते समय श्रोता उन पात्रों के साथ तदात्य का अनुभव करने लगते थे । हर्ष और दुःख के विशेष प्रसंगों पर उनके नेत्रों से अश्रुपात होने लगता था । वैराग्य का वर्णन उनके मन को विराग भावना से अभिभूत कर देता था ।
रूपकार को बाहुबली के जीवन-वृत्त का परिचय कराने के लिए महामात्य ने कथा का प्रारम्भ इस प्रकार किया
वर्तमान काल का तृतीय अक्ष, तीसरा काल, समाप्ति की कगार तक पहुँच गया था। चौथे काल की रीति-नीति के अनुकूल धीरे-धीरे स्वतः सारे परिणमन होने लगे थे । भोगभूमि का वातावरण कर्मभूमि के रूप में परिवर्तित होना प्रारम्भ हो गया था ।
मणि-किरणों के अनवरत ज्योतिपुंज की अभ्यस्त धरा, दिवस और रात्रि के चन्द्र से प्रकाशित और तमावृत होने लगी । रवि, शशि और तारागण ही अब उसके प्रकाश स्रोत थे । एक दिन जब सूर्य की दाहक किरणों ने प्रथम बार भूमण्डल को तप्त किया, तब प्रजाजन पीड़ित और आतंकित हो उठे । रात्रि को चन्द्रमा की किरणों ने उन्हें सांत्वना देकर समाधान प्रदान किया । अनभ्र गगन में मेघों का संचरण होने लगा । मेघमाला के विविध वर्णों और विचित्र आकारों ने अनन्त के विराट शून्य की रिक्तता को भर दिया । शीत और ताप के इस क्रमिक अनुवर्तन ने ही धरा- गर्भ को उस प्राणवती उष्मा का दान किया, जिसे