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महाराज भरत विचारने लगे कि चक्र की उत्पत्ति और पुत्र की प्राप्ति, ये सब पुण्य के प्रभाव से प्राप्त होनेवाले सांसारिक सुख है। धर्म की साधना के मार्ग में ऐसा पुण्य अनचाहे मिलता ही है। पिताश्री को तीर्थकर का पद प्राप्त हुआ है, अर्हन्त बनकर अब उनमें तीन लोक के जीवों को सन्मार्ग दिखाने की क्षमता प्रकट हुई है, यही आज का सबसे बड़ा मंगल संवाद है। उन्होंने सर्व प्रथम केवलज्ञानी भगवान् ऋषभदेव की वन्दना और केवलज्ञान की पूजा करने का संकल्प किया। ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों बहनों और प्रजाजनों के साथ, जब महाराज भरत ऋषभदेव के समवसरण में उपस्थित हुए, तब तक वहाँ हस्तिनापुर से राजा सोमप्रभ और युवराज श्रेयांस, पोदनपुर से युवराज बाहुबली, पुरनताल नगर से उनके अनुज वृषभसेन आदि अनेक राजा एकत्रित हो चके थे। सबने बड़े हर्ष और भक्तिपूर्वक भगवान् का पूजन किया। एकसौ आठ नामों से युगादिदेव का गुणानुवाद करते हुए भरत अयोध्या लौटे। - दूसरे ही दिन आयुधशाला में जाकर भरत ने चक्ररत्न का स्वागतअनुष्ठान किया। उनके अतिशय पुण्य के उदय से चक्रवर्तो का ऐश्वर्य उनके यहाँ प्रकट हो रहा था। चक्ररत्न के साथ ही उनके परिकर में नवनिधियाँ और चौदह रत्न, एक-एक करके प्रकट हो गये थे। इन दिव्य उपकरणों का स्वामी बनकर, अब छह खण्ड पृथ्वी पर अपना निष्कण्टक साम्राज्य स्थापित करना, चक्रेश की अनिवार्य नियति थी। ..: ___ कुछ ही दिनों में चक्रवर्तित्व की उद्घोषणा के लिए भरत का दिग्विजय अभियान प्रारम्भ हुआ। सहस्र यज्ञों से रक्षित, सहस्र आरोंवाला उनका दिव्य चक्र, सेना के आगे-आगे चलता था। अयोध्या की चतूरंगिणी सेना उस चक्र की अनुगामिनी होकर भरत की अजेय शक्ति का डंका पीटती हुई, देश-देशान्तरों में भ्रमण कर रही थी। प्रायः प्रत्येक नरेश अपने राज्य की सीमा पर उनकी अगवानी करते, उनका अनुशासन शिरोधार्य करते, और अपने राज्य में सम्मानपूर्वक उनकी विजय-यात्रा को संचालित करते थे। जो नरपति भरत का प्रतिरोध करने का संकल्प करते थे, चक्रेश की सेना की विराटता और उनके दिव्य अस्त्रों का तेज दृष्टि में आते ही उनके विरोध-संकल्प टूट जाते थे।
दिग्विजय के इस अभियान में भरत की इच्छा-आकांक्षा का कोई महत्व नहीं था। चक्रवर्ती राजा के भाग्य से बंधा हुआ यह एक अनिवार्य नियोग था, जो उन्हें पूरा करना ही था। वह विजय-यात्रा भरत की तृष्णा से प्रेरित नहीं, उनकी नियति का सहज परिणाम मात्र थी। छह खण्ड पृथ्वी
६८ / मोमटेश-गाथा