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१८. भरत की दिग्विजय
ऋषभदेव के दीक्षित हो जाने के उपरान्त भरत ने अत्यन्त निस्पृहतापूर्वक अयोध्या पर शासन किया। उनके शासन में अनीति, अनाचार, पक्षपात और अव्यवस्था का नाम भी नहीं सुना जाता था । दूर-दूर तक उनका यश व्याप्त हो रहा था । वे प्रजावत्सल और प्रजापालक 'राजर्षि भरत' के नाम से विख्यात हुए । कालान्तर में उन्हीं के यशस्वी नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' प्रसिद्ध हुआ ।
एक दिन भरत महाराज को तीन शुभ संवाद एक साथ प्राप्त हुए । वनमाली ने सभा में प्रवेश करके सभी ऋतुओं के फल-फूल एक साथ उनके समक्ष अर्पित किये, फिर भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान प्रकट होने की सूचना दी। उसने बताया कि मनुष्यों और देवों ने भगवान् की कैवल्य-प्राप्ति का उत्सव आयोजित किया है। पूरी अटवी नाना प्रकार से सजाई गयी है । प्रकृति भी भगवान् की तपस्या सफल होने का हर्ष उल्लास मना रही है। वन में सुरभित समीर प्रवहमान है । समस्त वृक्ष और पौधे एक साथ पल्लवित और पुष्पित हो उठे हैं ।
संवाद सुनते ही महाराज का मन, भगवान् के चरणों में श्रद्धा और भक्ति से भर उठा। सिंहासन से उतरकर वन की दिशा में सात पग आगे बढ़कर उन्होंने अर्हन्त ऋषभदेव को परोक्ष नमन किया। लौटकर वे अभी सिंहासन पर बैठे ही थे कि आयुधशाला के प्रभारी ने उपस्थित होकर आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट होने की सूचना दी । यह भरत महाराज के चक्रवर्तित्व का मंगलाचरण था । उनका हर्ष दोगुना हो उठा । दिव्यचक्र के सत्कार के विषय में वे अभी विचार ही कर रहे थे तभी अन्तःपुर का चर पुत्रोत्पत्ति का सुखद समाचार लेकर सेवा में उपस्थित हुआ। इस संवाद ने उनके हर्ष को कई गुना कर दिया ।