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अब इसी प्रकार सीधा करूँगी इसे । '
- किन्तु बड़ी माँ, मेरे लिए अगाध रही उनकी ममता और अनन्त रहा उनका लाड़ । कितने ही बार उन्हें कहते सुना करता - - 'मेरे बाहुबली को तू क्या जाने, सुनन्दा | ये बालक पहले उसका उपद्रव करते हैं और वह उत्तर दे देता है तो तेरे पास उपालम्भ लाकर अपनी खीझ निकालते हैं । फूल - से बेटे की ऐसी प्रताड़ना ? कितनी कठोर है तेरी छाती ! कहे देती हूँ, अब कभी छूकर देखना मेरे बाहुबली को, फिर बताऊँगी तुझे ।'
—माताओं के उस वार्तालाप में कितना यथार्थ होता, कितनी कृत्रिमता होती यह जानने की बुद्धि तब मुझ में नहीं थी । परन्तु उसके उपरान्त, अपने बाहुबली का 'मुक्ति पर्व' मनाने के लिए, उस बालमण्डली के बीच ' मोदक वितरण अनुष्ठान' का प्रारम्भ बड़ी माँ के आँगन में होता था । दूसरे ही क्षण मोदमग्ना जननी को उसमें सम्मिलित होकर बड़ी माँ का हाथ बटाते हम देखते थे ।
-अयोध्या का एक-एक गृह, एक-एक आंगन, हमारे लिए बड़ी माँ के आँगन की ही तरह लाड़-प्यार से भरा मिलता था । द्वार-द्वार पर क्षण भर हमें बिलमाने के लिए माताएँ अपने शिशुओं के साथ बाट जोहती रहतीं। घर में और नगर में सदा सर्वदा हम एक - सौ एक ही माने गये । अग्रज भरत एकमात्र वरिष्ठ, और हम एक-सौ कनिष्ठ, यही हमारी पहचान थी । यशस्वती और सुनन्दा के पुत्रों के रूप में पृथक्-पृथक् करके कभी किसी ने हमें जाना हो, ऐसा हमें कभी नहीं लगा । हम स्वयं भी तो, बड़े होकर ही यह भेद जान पाये ।
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- बालसखाओं के यूथ बनाकर हम तरह-तरह के खेल खेलते थे । आँखमिचौनी, कन्दुक और गिल्लिका, दौड़ की स्पर्धा और युद्ध की व्यूह रचना, ये सारे कौतुक उस क्रीड़ा का अंग होते थे । एक यूथ का नेतृत्व अग्रज के हाथ में आते ही, दूसरे का प्रधान बन जाना हमारे लिए अनिवार्य होता था । हमें भली भाँति स्मरण है देवी, कि कौतुक की उस विजय में भी हमारे अग्रज के मुख पर कभी अहंकार दिखाई नहीं दिया । किसी भी खेल की पराजय उन्हें कभी खिन्नता नहीं दे पायी । खेल की पराजय में ऐसा अशोक और इतना निस्पृह बना रहने वाला दूसरा कोई सखा हमारे बीच नहीं था । इसलिए ऐसा होता कि यदि हम बार-बार हारने लगते, तो पराजय की ग्लानि से हमें बचाने के लिए भरत स्वयं अपने यूथ की 'हार स्वीकार कर लेते थे । उनकी स्नेह भावना से हमारी पराजय, उसी क्षण विजय के उल्लास में परिवर्तित हो जाती । उन महा
८० / गोमटेश - गाथा