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प्राण अग्रज को हमने कभी अपने प्रति ईर्ष्यालु, अपना प्रतिस्पर्धी नहीं पाया। __-यह विधि की विडम्बना ही है कि वही भरत, अपने लाडले अनुज पर विजय की कामना लेकर, हठात् उसे युद्ध में घसीट रहे हैं। अनीति का प्रतिकार करने का जो पाठ पित-चरणों में हम दोनों ने कभी पढ़ा था, ऐसा लगता है कि आज उसी की परीक्षा लेने के लिए अग्रज ने हमें सीमा पर आमंत्रित किया है।
-ऋषभदेव के सपूतों की इस क्षुद्रता पर लोक क्या कहेगा, आज यही विचार हमें सर्वाधिक व्यथित कर रहा है। अपनी हठ-धर्मी का समाचार सुनाकर उन ममतामयी माताओं का हृदय विदीर्ण करने का दुष्कृत्य, हम उन्हीं के जाये दोनों भ्राता करेंगे, यही कल्पना हमारी सबसे बड़ी पीड़ा है। पर ऐसा लगता है कि यह पीड़ा निष्प्रतिकार है। इसे भोगना ही आज हमारी नियति है। ___ -हमें विश्वास है कि देवी, आज अग्रज के अंतस् में झाँक कर कोई देख सके तो यही पीडा, इससे शतगुनी व्यथा उन्हें दे रही होगी। पर भरत योगी हैं, उनके मन की गहराई के समक्ष मुनियों की एकाग्रता भी लज्जित हो जाती है। उनकी मनःस्थिति जान लेना कभी किसी के लिए भी सम्भव नहीं रहा, माताओं के लिए भी नहीं।
-परीक्षा की इस घड़ी में युद्ध का आमन्त्रण अस्वीकार करके, पौरुष की मर्यादा हम लांछित नहीं करेंगे। पोदनपुर की महारानी को कायर की पत्नी कहलाने का प्रसंग कभी आने नहीं देंगे। तुम्हारा लाड़ला बेटा महाबली, निर्वीर्य नरेश का पुत्र नहीं कहा जायेगा । परिणाम की चिन्ता किये बिना पोदनपुर की सीमित सेना, चक्रवर्ती की अक्षौहिणी का सामना करेगी।
---यह अवश्य है कि इस युद्ध में हमारा चित्त विभाजित रहेगा। सम्राट के अहंकार का खण्डन हमारा लक्ष्य होगा, परन्तु भरत का पराभव हम कभी नहीं चाहेंगे । अग्रज भरत के शरीर को भूल से भी हमारे शस्त्रों का स्पर्श यदि हो गया, तो हमें मर्मान्तक पीड़ा होगी। पोदनपुर का प्रत्येक सैनिक हमारी इस भावना के प्रति आमरण सावधान रहेगा। किसी के हाथों बड़ी माँ के बेटे का अकल्याण, उन कृपालु भ्राता की पराजय, हमारे लिए कल्पनीय भी नहीं है।'
भावनाओं में बहकर बाहुबली अत्यन्त अधीर हो गये थे। छोटी और बड़ी रसरी के बल से घूमती मथानी, जैसे दधि का मन्थन करती है, भावना और कर्तव्य की खींचतान में उसी प्रकार उनके मन का
गोमटेश-गाथा / ८१