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२०. अतीत का अनावरण
सार्वभौमिकता की मर्यादा रखने के लिए बाहुबली ने युद्ध की चुनौती स्वीकार कर तो ली, परन्तु उनका मन गहरे अवसाद में डूब गया। आकांक्षाओं और कामनाओं के दुष्चक्र में, बड़े-बड़े विवेकशील महापुरुष भी, कैसा अप्रिय आचरण करने को बाध्य हो जाते हैं, यह देखकर राज्यलक्ष्मी के प्रति उनका मन विरवित से भर उठा। स्वजनों से उनकी उदासी छिपी नहीं रह सकी। सायंकाल आमोद-कक्ष में वार्तालाप करते हुए उनकी वल्लभा जयमंजरी ने उदासी का कारण पूछ ही लिया। ___ 'अयोध्या से दूत आया था। आमन्त्रण दे गया है।' कहकर वे फिर विषादमग्न हो गये। महारानी ने उन्हें पुनः टोका, 'अग्रज का आमन्त्रण तो प्रसन्नताप्रद होना चाहिए। खिन्नता का इसमें क्या हेतु है ?' ___'आमन्त्रण सामान्य नहीं है देवी ! वह अग्रज द्वारा प्रेषित भी नहीं है। अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट्, महाराज भरत ने पोदनपुर के नरेश बाहुबली को युद्ध का आमन्त्रण दिया है । असमंजस में उलझ गया हूँ। राज्य की मर्यादा और कर्तव्य की पुकार, इस संघर्ष को अनिवार्य बनाती है। दूसरी ओर भाई-भाई की इस लड़ाई से पूज्य पितृ-चरणों की निर्मल कीति लांछित होती दिखाई देती है। भ्राता भरत की सदाशयता और उदारता की स्मृतियाँ मन को झकझोर रही हैं। कोई मार्ग नहीं सूझता कैसे इस अप्रिय स्थिति का निराकरण हो।' ____ स्वामी सब प्रकार से समर्थ हैं। कर्तव्य और धर्म की रक्षा के लिए जो भी करना पड़े, स्थिर चित्त होकर वही करना चाहिए। भावुकता और आवेश, राज-काज में दोनों वर्जित हैं।'
'तब ठीक है जयमंजरी ! हम भी यही सोचते हैं । युग-संस्थापक पिता के अंक में खेले हुए भाइयों के परस्पर युद्ध से ही, यदि इस कर्म