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पर प्रक्षेपित हुए, परन्तु वह उनके विवश हाथों की ही क्रिया थी। भरत का मन उस शिलांकन की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न ही लगा रहा था।
षट्-खण्ड पृथ्वी के आधिपत्य का नियोग पूरा करके भरत की सेनाएँ गृहनगर की ओर लौट पड़ी। चक्ररत्न की पथ-बाधा
महाराज भरत छह खण्ड पृथ्वी पर विजय प्राप्त करके लौट रहे थे। अयोध्या नगरी अपने नरेश के स्वागत के लिए दुलहन की तरह सजी थी। नगर-प्राचीर के बाहर मुख्य पथ पर, स्वागत द्वार का निर्माण किया गया था। कई दिन पूर्व से अयोध्या की प्रजा आमोद-प्रमोद मनाती हई, भरत के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। विजय की गरिमा से गौरवान्वित, चक्रवर्तित्व की महिमा से मण्डित सम्राट भरत ने, अपने परिकर और सैन्य-दल के साथ अयोध्या की सीमा पर पदार्पण किया। स्वागत द्वार से बहुत आगे पहुँचकर हजारों नर-नारियों ने उनकी अगवानी की। लाजा सुमन बिखेर कर राज-पथ को रंग-विरंगा कर दिया। पथके दोनों ओर सौभाग्यवती स्त्रियों ने मंगल कलशों की पंक्तियाँ खड़ी कर दीं। चक्रवर्ती भरत के जय-जयकारों से अयोध्या का आकाश गूंज उठा। राज-माताएँ और राज-रानियाँ महलों में भरत के स्वागत की संयोजना कर रही थीं। कन्याएँ उनकी मंगल आरती के लिए स्वागत द्वार पर उपस्थित थीं। सहस्रों नर-नारी कभी दूर तक जाकर भरत के उस बिखरे विभव की महिमा का दर्शन करते थे और कभी नगर में लौटकर पुरवासियों से उसका बखान करते थे।
जैसे-जैसे चक्रवर्ती की सेना नगर के समीप पहुँचती जाती थी, वैसे-वैसे लोगों का हर्ष और उत्साह बढ़ता ही जा रहा था। पंक्तिबद्ध आगे-आगे चल रहे भेरी, ध्वज और निशान, स्वागत द्वार तक पहुँचे ही थे कि तभी स्वागत का वह सारा उत्साह एकाएक खण्डित हो गया । स्वागत द्वार के समक्ष आते ही चक्र का शकट स्वतः स्थिर हो गया। सारी सेना और समस्त परिकर स्तब्ध-सा होकर जहाँ का तहाँ रुक गया। अनेक प्रयास किए गये परन्तु देवोपुनीत वह चक्र, फिर टस से मस नहीं हुआ। मन्त्रिगण व्याकुल हो उठे। सेनापति उत्तेजना से अभिभूत हो गये। उन्हें अपनी सारी विजय निरर्थक-सी जान पड़ने लगी। सैनिकों में हलचल मच गयी, किन्तु सम्राट भरत एकदम शान्त और निरुद्विग्न बने रहे। उन्होंने निमित्तज्ञानी विचारकों से परामर्श किया। बुद्धिसागर पुरोहित से उन्हें ज्ञात हुआ कि भूमण्डल पर एक भी नरेश
गोमटेश-गाथा / ७१