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जब तक मनसा, वाचा, या कर्मणा चक्रवर्ती के अनुशासन को अस्वीकार करता है, उनके प्रतिरोध का संकल्प रखता है, तब तक उनकी विजय अधूरी है। ऐसी खण्डित विजय को लेकर चक्र नगर में नहीं लौटता। छह खण्ड पृथ्वी को सार्वभौमिकता का प्रतीक बनकर ही वह अयोध्या की आयुधशाला में प्रवेश करेगा। ज्योतिष के निष्णात उस विद्वान ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि भरत के अनुशासन के बाहर और कोई नहीं, उनके अपने ही बन्धु-बान्धव हैं। पोदनपुर-नरेश बाहुबली ने और भरत के शेष अट्टान्नवे बन्धुओं ने, अपने अग्रज भरत को भले ही सहस्र बार मस्तक झुकाया हो, परन्तु आज्ञावर्ती नरेशों के रूप में समक्ष आकर, चक्रवर्ती भरत को उन्होंने एक बार भी प्रणाम नहीं किया। न वे ऐसा करना ही चाहते हैं।
भरत ने विचार किया कि यह मेरा ही प्रमाद था। जय-यात्रा की इस आपाधापी में बन्धु-बान्धवों को मैं बिल्कुल ही भुला बैठा। अपने ही भ्राता आनन्द के सहभागी न हों तब ऐसी विजय का क्या लाभ ? चक्र के गतिरोध ने भाइयों की बिसरी हुई सुधि दिला दी, उन्हें अपने हर्ष में सहभागी बनाने का अवसर प्रदान कर दिया, यह हमारे ऊपर उसका उपकार ही हुआ।
समस्या का समाधान भरत को अत्यन्त सहज लगा। उन्होंने अपने सभी भाइयों के पास दौत्य कला में निपुण सन्देशवाहकों के हाथ, बहुमूल्य उपहारों के साथ आमन्त्रण भिजवाये। उन्हें साम्राज्य की इस विजयोत्सव बेला में उपस्थित होने का प्रेम-भरा निर्देश दिया। परन्तु अस्वीकति की दशा में अपने दूतों को साम, दाम के प्रयोग का अधिकार देना भी ये दूरदर्शी सम्राट नहीं भूले। अयोध्या के बाहर एक बार फिर भरत की सेना का स्कन्धावार स्थापित हुआ। सभी लोग विजय की पूर्णता के लिए आतुर वहीं प्रतीक्षा करने लगे। - सम्राट भरत के एक अनुज, पुरनताल के नरेश वृषभसेन, पूर्व में ही ऋषभदेव के समीप मुनि-दीक्षा धारण करके उनके गणधर बन चुके थे। दूतों के द्वारा भ्राता का कूटनीतिक आमन्त्रण प्राप्त होते ही शेष अट्टान्नवे अनुज भी वृषभसेन के अनुगामी हुए। पिता द्वारा प्रदत्त अपने छोटे से स्वतन्त्र राज्य में, चक्रवर्ती भ्राता का हस्तक्षेप उन्हें मान्य नहीं हुआ। परन्तु अपने ही भ्राता के साथ विवाद बढ़ाने की अपेक्षा, कलह की मूल उस राज्य-लक्ष्मी का त्याग उन्हें अधिक प्रिय लगा। दूतों को सम्मान सहित विदा करके उन्होंने अपने पुत्रों के सिर पर राजमुकुट रखे। उन्हें भरत की अधीनता स्वीकार करने का परामर्श दिया और
७२ / गोमटेश-गाथा