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• पर उत्कृष्ट प्रभुता स्थापित हो जाय, एक भी प्रजा - पीड़क उच्छृंखल नरेश शेष न रहे, सारे शासक राजा-महाराजा उस एक सम्राट् की अधीनता मानकर अनुशासित हों, यही चक्रवर्ती की प्रभुता थी, जिसे प्राप्त करके साम्राज्य की महत्ता स्थापित करना चक्रवर्ती का कर्तव्य होता है । अब भरत राजा का यही दायित्व था ।
भरत के चक्र की अनुगामिनी होकर विजय की दुन्दुभी सर्वत्र अबाध रूप से बजती चली गयी । दिग्विजय की गरिमा स्वयमेव उन्हें प्राप्त होती गयी । नगर, जनपद और राज्य, वन, पर्वत और सरिताएँ, समुद्र, उपसमुद्र और महासागर, जल और थल, सब भरत के साम्राज्य के अंग बनते चले गये । विन्ध्यगिरि से हिमवान् पर्वत तक भरत- क्षेत्र का कोई भूखण्ड
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शेष न रहा जिस पर भरत की प्रभुता स्थापित न हुई हो ।
जयलेख का शिलांकन
चक्रवर्ती के वशवर्ती प्रदेश की अन्तिम सीमाओं पर विजय प्राप्त करके वृषभाचल के उत्तुंग मणिमय शिखरों को देखकर, एक निमिष के लिए भरत के मन में मान का स्फुरण हो गया । उन्हें लगा कि उनका साम्राज्य लोकोत्तर विजय का प्रतीक है । क्यों न इस अद्वितीय यात्रा का शिलालेख इस पर्वत पर अंकित कर दिया जाये । आनेवाली पीढ़ियाँ भी जान सकें, कि चौदहवें कुलकर नाभिराय का पौत्र, आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का पुत्र, सम्राट् भरत ही वह प्रथम चक्रवर्ती हुआ जिसने इस दुर्गम प्रदेश तक विजय यात्रा करके, इन दुरूह शिखरों पर अपनी जयपताका फहरायी ।
वृषभाचल शिखर, म्लेच्छ खण्ड का सबसे ऊँचा शिखर था। छहखण्ड पृथ्वी के विजेता भरत ने अपनी कीर्ति को टंकोत्कीर्ण करने के लिए वही शिखर पसन्द किया। अनुकूल स्थल की शोध में, सम्राट् स्वयं शिल्पी के साथ उस पर्वत-शिखर पर गये । प्रमुख चट्टान की ओर बढ़ने पर शिल्पी को ऐसा भ्रम हुआ जैसे वहाँ पहले से ही कोई शिलालेख अंकित है । उसने विशेष ध्यान नहीं दिया और दूसरी शिला की ओर बढ़ गया। संयोग से वह शिला भी अछूती और कोरी नहीं थी । जब दो, चार, दस शिलाओं का निरीक्षण कर लेने पर, प्रत्येक शिला रेखांकित ही मिली, तब शिल्पी का माथा ठनक गया ।
दीर्घ अतीत में इतने चक्रवर्ती इस भूखण्ड को विजित कर चुके हैं, 'इतने विजेता इस दुर्गम पर्वत की यात्रा करके यहाँ अपने शिलांकन छोड़ गये हैं, कि पूरा वृषभाचल उन जय गाथाओं से भरा पड़ा है, यह देखते
गोमटेश - गाथा / ६६