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पुष्प, दुग्ध और नैवेद्य, सब कुछ उनके समक्ष अर्पित करते थे, परन्तु नौ प्रकार की भक्तिपूर्वक उन्हें पड़गाह कर आहार देने की विधि कोई नहीं जानता था, अतः भगवान् जैसे आते थे, बिना आहार ग्रहण किए वैसे ही वन को लौट जाते थे। भरत चिन्तित और व्यग्र थे परन्तु कोई उपाय बन नहीं रहा था। ____ एक दिन हस्तिनापुर के युवराज श्रेयांश को जातस्मरण नाम के विशिष्ट ज्ञान द्वारा दिगम्बर साधु की आहार-विधि का ज्ञान हुआ। उन्होंने अपने उपवन में वटवृक्ष के तले, चर्या के लिए विहार करते हुए भगवान् का आवाहन किया। उस समय श्रेयांशकुमार श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, उत्साह, क्षमा और त्याग, दाता के इन सप्त गुणों से युक्त थे। भगवान् आदिनाथ को आहार कराने के अभिप्राय से उन्होंने आदरपूर्वक उनका आवाहन, आसन, चरणप्रक्षालन, पूजन और नमस्कार करते हुए मन, वचन, काय तथा आहार की शुद्धि रूप नवधा भक्ति की आराधना की थी। उन्होंने भगवान् के लिए त्रिबार नमोस्तु करते हुए उनकी प्रदक्षिणा करके प्रासुक द्रव्य से उनका पूजन किया और तब आदरपूर्वक उन्हें इक्षुरस का पान कराया। भगवान् ने खड़े ही खड़े अपने हाथों की अंजली में लेकर वह रस और थोड़ा-सा जल ग्रहण किया। फिर वे वन की ओर लौट गये। __ भगवान् के आहार के निमित्त से श्रेयांश राजा अक्षय निधियों के स्वामी हुए। बैसाख मास के शुक्ल पक्ष की वह तृतीया तिथि, तभी से 'अक्षय तृतीया' कहलायी। दान को महिमा ऐसी अपरम्पार है कि आदिदाता श्रेयांश राजा की मृण्मय पुतलियाँ बनाकर, अक्षय तृतीया के दिन वटवृक्ष के नीचे उनका पूजन, आज भी मनोवांछित फल का प्रदाता माना जात है । कुंवारी कन्याएँ इष्ट मनोरथ की पूर्ति की आकांक्षा से आज भी वह उत्सव मनाती हैं।
ऋषभदेव ने दीर्घकाल तक संयम, तप और योग की एकनिष्ठ साधना के उपरान्त केवलज्ञान प्राप्त किया। कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् वे सर्वज्ञ, हितोपदेशी, वीतरागी भगवान्, देश-देशान्तरों में उस अनुभूत आत्मधर्म का उपदेश करते हुए, अन्त में कैलास पर्वत के शिखर पर शरीर त्यागकर मोक्ष गये। जन्म-मरण के संसारचक्र से वे सदा के लिए मुक्त हो गये। निर्वाण प्राप्ति के उपरान्त उन्हें पूर्ण-परमात्मा कहा गया।
६६ / गोमटेश-गाथा