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भोगप्रधान पद्धति का समापन होकर, कर्मप्रधान जीवन का यह रूप प्रकट हुआ। परिवर्तन की इस प्रक्रिया में समय-समय पर चौदह मनु या कुलकर अवतरित हुए, जिन्होंने मानव-समाज को जीवनयापन के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन दिया। उनकी नवीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करके प्राकृतिक विपत्तियों से उन्हें अभय दिया। ___ अयोध्या के शासक नाभिराय चौदहवें और अन्तिम कुलकर हुए। उन्होंने प्रजा को उपयोगी और अनुपयोगी वनस्पति का विवेक देकर पेड़पौधों के सहारे विविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने का मार्ग बतलाया। सहज जीवनयापन के और भी अनेक परामर्श नाभिराय ने प्रजा को प्रदान किये । उनके पश्चात् व्यवस्था का संचालन उनके पुत्र ऋषभदेव के हाथों में आया। यही ऋषभदेव जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हुए। विष्णु के चौबीस अवतारों में इन्हें आठवाँ अवतार कहा गया है। यही ऋषभदेव भारत के यशस्वी आदि सम्राट,योगिराज भरत के पिता थे। आदिनाथ उन्हीं का दूसरा नाम था। ___ ऋषभदेव ने मानव-सभ्यता को संवारने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। उन्होंने नगर, ग्राम और पुर बसाये । असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प, ये छह प्रकार के कौशल सिखलाकर प्रजा को सार्थक और उत्पादक श्रम का महत्व समझाया । जीवन में उसकी अनिवार्यता का प्रथम पाठ पढ़ाया। अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को शिक्षित करने के बहाने, उन्होंने लिपि और अंक विद्या का परिष्कार किया। शिक्षा और कला-प्रधान कार्यकलापों के माध्यम से, मानव समाज में नारियों के, समान महत्व का यह प्रथम उद्घोष था। अपने पुत्रों को ऋषभदेव ने राजनीति, युद्धनीति और धर्मनीति, तीनों की रक्षा करते हुए स्वतन्त्र और निर्भीक जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान दी। अत्यन्त वत्सलता के साथ प्रजा का पालन-पोषण करते हुए ऋषभदेव ने दीर्घकाल तक अयोध्या का राज्य किया। आदिनाथ का वैराग्य
एक बार राज्यसभा में भगवान् ऋषभदेव की वर्षगाँठ का उत्सव मनाया जा रहा था। तरह-तरह के आमोद-प्रमोद उस दिन वहाँ आयोजित किये गये थे। प्रजाजन हर्ष और उत्साह से भरे हुए उस उत्सव में संलग्न थे, तभी देबराज इन्द्र ने नीलांजना अत्सरा को नत्य के लिए सभा में प्रस्तुत किया। उत्तम वस्त्रों और दिव्य अलंकारों से सज्जित उस देवांगना ने ऋषभदेव के समक्ष, सर्वथा अलौ
६२ / गोमटेश-गाथा