________________
महामात्य ने विस्तारपूर्वक उस दिन कालचक्र की व्यवस्था समझाते हुए बताया कि सदैव चौथे काल में ही कर्मभूमि की वे उत्तम सम्भावनाएँ उपस्थित होती हैं, जब मनुष्य उत्तम-कर्मों से अपने जीवन का उत्कर्ष करके आत्मा का कल्याण कर सकता है। मनुष्य, देव, नारकी और पशु इन चारों गतियों में से केवल मनुष्य गति, और छह कालों में से केवल चौथा काल ही ऐसा सुयोग देते हैं कि तब यदि जीव प्रयत्न करे, तो श्रद्धान ज्ञान और संयम की अपनी साधना के सहारे, जन्म-मरण के अनादिचक्र से मुक्त हो सकता है। नर को नारायण बनने का यही एक अवसर होता है। चारों गतियों के परिभ्रमण से परे, मोक्ष का मार्ग, इसी चौथे काल में इस भारत-भूमि पर प्रस्तुत होता है।
चौथे काल में ही प्रारम्भ से अन्त तक, थोड़े-थीड़े अन्तराल पर चौबीस तीर्थकर इस धरती पर अवतरित होते हैं। उनके द्वारा संसार में गहस्थों और यतियों के योग्य धर्म का प्रचार और प्रसार होता है। उनका चिन्तन और जीवन पर उनके प्रयोग, लोक के लिए कल्याणकारी होते हैं। वे वीतरागी, हितोपदेशी, सर्वद्रष्टा अर्हन्त, प्राणीमात्र के कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होते हैं। इन्हीं चौबीस तीर्थंकरों की समस्त परिग्रह से रहित वस्त्राभरण विहीन, यथाजात प्रतिमाएँ बनाकर, सदैव उनकी पूजा-अर्चना करने की परम्परा है। अभी-अभी जो चौथा काल व्यतीत हुआ है, आदिनाथ ऋषभदेव उस काल के प्रथम, तथा निर्ग्रन्थ नाथपुत्र महावीर अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर थे। इन चौबीस तीर्थंकरों के अतिरिक्त चौथे काल की दीर्घ समयावधि में लाखों-करोड़ों मनुष्य, घर कुटुम्ब से विरागी होकर मुनि बनते हैं और तपश्चरण द्वारा मोक्ष प्राप्त करते हैं, परन्तु उनकी प्रतिमाएँ स्थापित करने की परम्परा नहीं है।
LAME
...
BAYAP
a
गोमटेश-गाथा | ५६