________________
१६. कालचक्र का परिणमन
इस भरत-क्षेत्र के लिए अनादि-अनन्त कालचक्र के प्रवर्तन को भगवान् सर्वज्ञ ने अपने ज्ञान में ऐसा देखा है कि इसके छह कालखण्ड हैं :
१. सुखमा-सुखमा, २. सुखमा, ३. सुखमा-दुखमा, ४. दुखमासुखमा, ५. दुखमा, और ६. दुखमा-दुखमा।
इसी क्रम से इन्हें पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, और छठा काल भी कहा जाता है। इन कालखण्डों के प्रवर्तन में मनुष्यों के शरीर की अवगाहना, आयू, बल, वैभव, सुख,शान्ति आदि की क्रमशः अवनति या ह्रास होता जाता है। आकुलताएँ, संक्लेश, बैर, विरोध, मान और दुःख क्रमशः बढ़ते जाते हैं।
महाप्रलय ___ छठे काल के व्यतीत हो जाने पर महाप्रलय में इस सृष्टि का लगभग विनाश हो जाता है। महावेग से चलनेवाली कल्पान्त पवन, सृष्टि की सारी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देती है। सात-सात दिवस तक आँधी, पानी, क्षार, विष, अग्नि, धूल और धुएँ के प्रकोप से महानाश का वातावरण प्रकट हो जाता है। तब श्रावण मास के प्रथम दिवस से पृथ्वी पर सात-सात दिन तक जल, दुग्ध, घृत, अमिय एवं रस आदि सात पदार्थों की वर्षा होती है। फिर भाद्र मास की शुक्ल पंचमी से, यह पृथ्वी नवीन उष्मा का अनुभव करती है। पर्वत, कन्दराओं और नदी-घाटियों में बचे मनुष्य और पशु बाहर निकल आते हैं । विनष्ट मर्यादाओं की पुनः स्थापना होती है। सृष्टि के नव सृजन का वह प्रारम्भ, पुनः आनेवाले छठे काल का मंगलाचरण है। अब धीरे-धीरे उत्कर्ष काल का उदय होता है, और छठे के उपरान्त पाँचवाँ, चौथा, तीसरा, दूसरा और पहला काल