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कभी-कभी मुझे लगता कि क्या इसलिए बाहुबली पूज्य माने गये कि वे आदि देव के, बहुत बड़े पिता के, पुत्र थे ? या उन्हें इसलिए अर्चना का पात्र समझा गया कि उन्होंने अपने स्वाभिमान की रक्षा का बहाना लेकर, चक्रवर्ती का मान भंग किया ? या इसलिए कि पारिवारिक कलह का एक अनोखा कीर्तिमान उनके द्वारा भारतभूमि पर स्थापित किया गया ? अथवा क्या यह तथ्य उन्हें पूज्य बना गया कि उन्होंने अपनी राजनैतिक स्वायत्तता के लिए, अपने पैतृक अधिकार की स्वाधीनता की रक्षा के लिए, युद्ध की चुनौती को स्वीकार करके, सार्वभौमिकता और स्वतन्त्रता का, इस धरती पर पहला बिगुल फूंका ? मैं भी समझना चाहता था कि क्या थीं वे चारित्रिक विशेषताएँ, जो बाहुबली को ऐसा लोकोत्तर व्यक्तित्व प्रदान करके पूज्य बना गयीं ।
अपने भीतर उठते इन प्रश्नों के समाधान के लिए, मुझे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। इन समस्त प्रश्नों को एक दिन शब्दों में बाँध - कर प्रस्तुत कर दिया रूपकार ने, और उनका समाधान दिया स्वयं शास्त्रज्ञ चामुण्डराय ने। फिर तो अनेक सान्ध्य गोष्ठियों में इसी पुण्यप्रकरण पर महामात्य का प्रवचन होता रहा ।
चामुण्डराय का आगम ज्ञान अगाध था । प्रथमानुयोग के ग्रन्थों का उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता से अवलोकन किया था । त्रिषष्ठि शलाका-पुराण' या 'चामुण्डराय - पुराण' नाम से उन्होंने स्वयं कन्नड़ भाषा में एक कथाग्रन्थ की रचना, अभी थोड़े ही दिनों पूर्व की थी । जैन इतिहास के महापुरुषों की जीवन-गाथा वे बड़े ही सुन्दर और मनोहारी ढंग से सुनाते थे । प्रवचन करते समय वक्ता और श्रोता दोनों ही उस कथानक में तल्लीन होकर भाव-विभोर हो जाते थे ।
गोमटेश - गाथा / ५५