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१४. तक्षण का शुभारम्भ
बाहबली प्रतिमा के निर्माण की योजना बनते ही, यहाँ चामुण्डराय के अस्थायी कटक को, स्थायित्व प्राप्त होने लगा। अब प्रत्येक व्यवस्था को दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में नियोजित किया जा रहा था। पार्श्वस्थ वन-प्रान्त से काष्ठ मँगाकर वस्त्रावासों को अधिक उपयोगी और सुविधापूर्ण बनाने का कार्य प्रारम्भ हो गया था । मठ में छोटा-सा जिनालय था ही, वहीं सायंकाल भक्ति, प्रवचन आदि होते थे। अब इस स्थान पर, जंगल में मंगल की अवतारणा करने के लिए महामात्य का अट द्रव्य-कोष, पानी की तरह बहाया जा रहा था। मैंने देखा है पथिक, कि थोड़े ही समय में यह शून्य अटवी, नागरिक सुविधाओं से परिपूर्ण, जन संकुल और जीवन्त हो उठी थी।
तीन चार दिवस के उपरान्त ही मूर्ति के तक्षण का कार्य प्रारम्भ होने वाला था। इस बीच में अनेक प्रकार के लौह उपकरणों की व्यवस्था कर ली गई थी। समूचे विन्ध्य पर्वत को कंटक रहित, स्वच्छ और पवित्र बनाने का अभियान चल रहा था। रूपकार का अनुरोध था कि शिला पर पण्डिताचार्य के यशस्वी करों से प्रथम टाँकी निपात कराकर, तब मूर्ति का तक्षण प्रारम्भ किया जाय। " पण्डिताचार्य ने कार्यारम्भ करने के लिए वास्तु-विधान के मंगल अनुष्ठान किये । अभीष्ट स्थान पर उत्तर दिशा में महाध्वज, और चारों दिशाओं में अक्षय कलशों की स्थापना की। वांछित भूमि-भाग को छोटी लाल पताकाओं से वेष्ठित करके उतनी पृथ्वी को अभिमन्त्रित किया। कुदृष्टि निवारण के लिए दक्षिण दिशा में अति दूर एक कृष्ण पताका की स्थापना की गई। तीन दिवस तक पूजन हवन और अखण्ड कीर्तन का क्रम वहाँ चलता रहा।