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प्रति आश्वस्त हो चुके थे । वे उसे पारिश्रमिक के रूप में उसकी आशा- कल्पना से भी अधिक द्रव्य देना चाहते थे । मन में भीतर कहीं उन्हें यह भी लग रहा था कि अपनी उदारता का उद्घोष अभी, प्रारम्भ
ही कर देना ठीक होगा । उनकी धारणा थी कि पारिश्रमिक के विपुल द्रव्य का आश्वासन, अवश्य रूपकार के मन को एकाग्रता, और हाथों hi अतिरिक्त गति प्रदान करेगा ।
'स्थूल तक्षण द्वारा शिला को आकर दे दो, शिल्पी । फिर अंगोपांगों की रचना के समय, तुम्हारे उपकरण उस शिला से जितना भी पाषाण कोर कर पृथक् करते जायेंगे, तुला पर चढ़ाकर उतना ही स्वर्ण, तुम पाते जाओगे । यही तुम्हारा पारिश्रमिक होगा । भगवान् के प्रथम दर्शन की न्यौछावर तुम्हारी सफलता का पुरस्कार होगा । यदि किसी प्रकार यह तुम्हारी अपेक्षा से न्यून है तो हम तुम्हारी आकांक्षा जानना चाहेंगे ।'
चामुण्डराय के मन की उदारता और आतुरता का अद्भुत मेल था उनके प्रस्ताव में। उन्होंने जो कहा वह सचमुच रूपकार की कल्पना से बहुत अधिक था । उसने प्रसन्न मन अपनी सहमति और कृतज्ञता व्यक्त कर दी ।
५० / गोमटेश - गाथा