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तैयार कर ली थी । विन्ध्यगिरि की भौगोलिक स्थिति और वातावरणं की अनुकूलता का आकलन करके, सामान्य 'पुरुषाकार से ग्यारह गुनी ' ऊँचाई, उन्होंने प्रस्तावित प्रतिमा के लिए निर्धारित की थी। एक दूसरे फलक पर प्रतिमाशास्त्र के स्थापित सिद्धान्तों के अनुसार, प्रस्तावित प्रतिमा का अंग सौष्ठव भी उन्होंने निर्धारित कर दिया था। इतना ही नहीं, उसके तल छन्द और ऊर्ध्व छन्द की सूक्ष्म गणना के साथ, प्रतिमा की नवताल ऊर्ध्वता को एक सौ आठ अनुपातों में विभाजित करते हुए, पूरी कलाकृति के लिए तिर्यक् और ऊर्ध्व आनुपातिक निर्देशों की संदृष्टि भी प्रस्तुत कर दी थी। इस प्रकार बाहुबली के स्वरूप की अपनी पूरी परिकल्पना आचार्यश्री ने उन दो काष्ठ - फलकों पर अंकित कर दी थी।
रूपकार प्रतिमाविज्ञान में महाराज के अगाध ज्ञान का परिचय पाकर चकित रह गया। दोनों काष्ठ - फलकों का अंकन देखकर, उनकी एक-एक रेखा और बिन्दु की शास्त्रोक्त व्याख्या सुनकर, उसने उन श्रीगुरु की दक्षता को एक बार पुनः मन ही मन नमन किया। उसे लगा कि भले ही वह राज्यशिल्पी हो, भले ही पीढ़ियों का पारम्परिक ज्ञान और अनुभव उसके पास हो, परन्तु मूर्तिशास्त्र के ज्ञान में, आचार्य महाराज के समक्ष उसकी स्थिति एक अबोध बालक से अधिक कुछ नहीं है ।
आचार्यश्री की विराट कल्पना और सांगोपांग प्रस्तावना, एकदम अभिनव निर्दोष और पूरी तरह व्यवहार्य थी । रूपकार को विश्वास हो गया कि आचार्य महाराज के उदार परामर्श और कुशल निर्देशन में कार्य कर पायेगा, तो उसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा । निश्चित ही उसकी क्षमता का उत्कर्ष होगा । उसने नम्रतापूर्वक श्रीचरणों में निवेदन किया
'महाराज ! उपादान और उपकरणों की क्षमता भर सृजन करके दिखा दे, ऐसा कलाकार तो अभी धरती पर जन्मा नहीं । हम कलाकारों की सीमा तो हमारी अपनी क्षमता तक ही होती है । मैं अभी तक्षण कला का विद्यार्थी ही हूँ । आप मूर्तिकला के मर्मज्ञ आचार्य हैं । मेरी सीमा समझते हैं । महामात्य ने इस महान् कार्य के लिए मुझे स्मरण किया, यह मुझ पर उनकी अनुकम्पा है। मैं इतनी ही विनय करता हूँ कि अपनी ओर से कार्य की निष्पत्ति में कोई प्रमाद नहीं होने दूंगा पूरी क्षमता और एकाग्रता से आपकी कल्पना को आकार देने का प्रयास करूँगा । सफलता के लिए आर्शीवाद का आकाक्षी हूँ ।'
चरणावनत रूपकार को आचार्य की वरद मुद्रा जो प्रदान कर रही थी, आशीष तो वह था ही, सफलता के लिए वरदान भी था ।
४८ / गोमटेश - गाथा