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आचार्य महाराज के साथ, एक बार पुनः सब लोग ऊपर वाण के चिह्न तक गये। जिनदेवन ने उस चिह्न पर केशर से स्वस्तिक का चिह्न बना दिया था। महाराज ने एक दृष्टि में ही उस पर्वत-खण्ड की क्षमता का आकलन करके कुछ संकल्प-सा किया और अपनी कल्पना शिल्पी को समझायी। रूपकार ने अब तक जो सम्भावनाएँ वहाँ देखी थीं, उन्हें प्रकट किया। कैसे उस शिला को ऊपर चोटी से गढ़ते हुए नीचे की ओर चलना होगा। एक स्थूल आकार प्रकट करते हुए कैसे उसी के समान्तर चारों ओर दूर-दूर तक पर्वत को काटते जाना होगा। ऊर्ध्वता में निराधार इतनी उत्तुंग प्रतिमा के सबल आधार के लिए, तल छन्द का कैसा तिर्यक विस्तार करना होगा, इन सभी सम्भावनाओं पर पर्याप्त विचार विमर्श करते हुए वे लौट पड़े।
मार्ग में जिनदेवन ने सहास कहा, 'संसार के सभी निर्माण, तल भाग से, नीचे की ओर से प्रारम्भ होकर ऊपर तक पहुँचते हैं, हमारी यह योजना निराली होगी जो ऊपर से प्रारम्भ होगी और नीचे जाकर सम्पन्न होगी।'
उत्तर रूपकार ने दिया, 'नहीं स्वामी ! गुफा-मन्दिर की रचना और कूप का निर्माण, ये दो कार्य सदैव शीर्ष भाग से ही प्रारम्भ होते हैं। तुम्हारी इस प्रतिमा का निर्माण भी ऐसा ही विलक्षण कार्य होगा।'
४६ / गोमटेश-गाथा