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णमो लोए सव्व साहूणं ॥ १ ॥ एसो पंच - णमोक्कारो सव्व - पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसि पढमं होइ मंगलं ॥२॥ चत्तारि मंगलं ।
अरहंता मंगलं ।
सिद्धा मंगलं ।
साहू मंगलं ।
केवल पण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥ ३ ॥
चत्तारि लोगुत्तमा ।
अरहंता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा ।
केवल - पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा ॥४॥ चत्तारि सरणं पव्वज्जामि | अरहंते सरणं पव्वज्जामि ।
सिद्धे सरणं पव्वज्जामि ।
साहू सरणं पव्वज्जामि ।
केवल पण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि ॥ ५ ॥
महाराज कहा करते थे कि यह मन्त्र सभी सिद्धियों का प्रदान करने वाला है । समस्त आगत- अनागत विघ्न-बाधाओं को पार करके, संकल्प को पूर्णता प्रदान करने की अद्भुत सामर्थ्य इस महामन्त्र में है । वे सदा बड़ी भक्ति और आस्थापूर्वक तल्लीन होकर इस मन्त्र का पाठ करते थे। उस समय पिच्छी सहित उनके हाथ नमस्कार मुद्रा में रहते। उनके पवित्र हाथों की कोमल अँगुलियाँ, पिच्छी को ऐसी कलात्मक मृदुता के साथ साधती थीं, कि लगता था कोई कलाकार, वीणा बजा रहा है, उसी के मधुर स्वर वातावरण में बिखर रहे हैं ।
मन्त्रोच्चार सम्पन्न होने पर, चामुण्डराय ने एक बार पुनः श्रीगुरु का चरणस्पर्श किया, जननी के चरण छुए, चौक में खड़े होकर दोडवेट्ट की ओर शर-संधान किया और महाराजा का अँगुलि -निर्देश मिलते ही, प्रत्यंचा को आकर्ण खींचकर, तीर छोड़ दिया ।
शतशः उत्सुक दृष्टियों ने वाण का पीछा किया। काललदेवी की Maratगे पहुँचकर उस पावन पाषाण का स्पर्श कर लैना चाहती थी, जिसके गर्भ में उनके आराध्य बसे थे। परन्तु शब्द से भी तीव्र गति से जाता हुआ छोटा-सा वाण, अधिक दूर तक लोगों के ४४ / गोमटेश - गाथा