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दृष्टि - पथ में बँधा नहीं रह सका । अधिकांश दृष्टियों से वह ओझल हो
गया ।
शिल्पी, जिनदेवन और सरस्वती के अतिरिक्त समूह में थोड़े से ही लोग थे जिनकी तीक्ष्ण दृष्टि उस तीव्रगामी वाण के साथ लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ रहीं।
'वह लगा वाण, उधर, उस चोटी के समीप । '
सबसे पहला हर्ष उद्घोष सरस्वती ने ही किया । वह पंजों पर उझकउझक कर लक्ष्य के सही स्थान की ओर निर्देश कर रही थी । जिनदेवन ने, बालयति जिनचन्द्र महाराज ने और दो-चार अन्य युवा नर-नारियों ने उसका समर्थन किया । वे सब लोग हाथ फैला - फैलाकर मेरे साथी के उसी उन्नत भाल की ओर इंगित कर रहे थे जिसे थोड़े ही समय उपरान्त बाहुबली का रूप प्राप्त होनेवाला था । इसी बीच जिस ओर तीर जाकर टकराया था वहाँ एक पीत पताका आकाश में फहरा उठी ।
शिल्पी ने वाण को लक्ष्य से टकराते देखा और अविलम्ब वहाँ से उठकर वह तीव्र गति से उस दिशा में भाग चला। फहराती हुई ध्वजा उसने दूर जाकर ही देखी । झाड़-झंखाड़ों से उलझता हुआ, चट्टानों और प्रस्तर-खण्डों पर उछलता कूदता, जब वह लक्ष्य स्थल पर पहुँचा, तब तक वहाँ कई लोग एकत्र हो चुके थे। जिनदेवन ने पहले ही कुछ सेवक वहाँ नियुक्त कर दिये थे, जो चट्टानों की ओट लेकर वहाँ छिपे हुए, आने वाले वाण की प्रतीक्षा कर रहे थे । वाण दिखाई देते ही, उसी स्थान पर पताका फहराकर संकेत देने का उन्हें आदेश था ।
वाण ने जिसे अपना लक्ष्य बनाया था, वह दोडवेट्ट का ही एक विशाल उन्नतोदर भाग था। जहाँ ये लोग खड़े थे वहाँ सीधा लगभग तीस हाथ ऊँचा उठता हुआ वह उसी पर्वत की चट्टान-सा लगता था । पार्श्व में और पीछे की ओर, तिर्यक् बिस्तार उसका प्रचुर था । इसी उन्नत भाग के बीचों-बीच वाण लगा था । मेरे साथी के मर्म को ही छुआ था चामुण्डराय के तीर ने ।
शिल्पी ने वाण के उस चिह्न का भली-भाँति अवलोकन किया । उस स्थल के परिवेश का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया और तब पीछे की ओर लौटकर वह नीचे उतरने लगा। लगभग तीन सौ पग पीछे लौटने पर वह वाण के चिह्न से प्रायः चालीस हाथ नीचे खड़ा था । यहीं से चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर, रूपकार ने परिवेश को अपनी निकष पर कसा । वह अपने मानसिक ऊहापोह में खोया, वहीं एक चट्टान का सहारा लेकर बैठ गया । तभी आचार्यश्री, चामुण्डराय और जिनदेवन वहाँ पहुँच गये ।
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गोमटेश - गाथा / ४५