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के मन्त्री और सेनापति का पदभार उसने राजा राचमल्ल के पूर्वज मारसिंह के राज्य में ही ग्रहण कर लिया था और राचमल्ल के उत्तराधिकारी रक्कस गंग के राज्यकाल तक, बड़ी निष्ठा, योग्यता और नैतिकता के साथ उस गरिमामय पद का निर्वाह किया ।
यथार्थ में गंग राजवंश के अवसान-काल में, इन तीनों ही राजाओं के समय, चामुण्डराय की स्थिति 'महामात्य' और 'महासेनापति' से बहुत ऊपर, एक संरक्षक जैसी बन गई थी । यही कारण था कि मारसिंह ने अपने अन्त समय में अपने अल्पायु स्वामी एवं भानजे, राष्ट्रकूट नरेश इन्द्रचतुर्थ की रक्षा का भार, अपने उत्तराधिकारी राचमल्ल पर नहीं, चामुण्डराय पर छोड़ा था ।
कर्नाटक का इतिहास बखानते समय तुम्हारे इतिहासकारों ने पगपग पर चामुण्डराय की यशोगाथा का गान किया है । उन्होंने एक स्वर से स्वीकार किया है कि उससे बड़ा जिनेन्द्र भक्त, वैसा वीर योद्धा, उतना बड़ा समरविजेता और वैसा सज्जन धर्मात्मा व्यक्ति कर्नाटक में दूसरा नहीं हुआ ।
पराक्रम, साहस और शौर्य के लिए दूर-दूर तक चामुण्डराय की ख्याति फैल गई थी । उसने अपूर्व कौशल से गंग सेना का संगठन किया था। वह अपनी सेना के एक-एक व्यक्ति के सुख-दुख का भागीदार होता था, उन पर अपार स्नेह रखता था । यही कारण था कि दीर्घकाल तक गंग राज्य की सैन्य शक्ति, अजेय और दुर्भेद्य मानी जाती रही । अपने विश्वस्त सैन्य बल के साथ जब चामुण्डराय युद्ध के लिए प्रस्थान करता, तब उसके सबल से सबल प्रतिपक्षी भी भयभीत और आतंकित होकर काँप उठते थे। उसने अनेक युद्ध लड़े थे और उनमें गौरवपूर्ण विजय प्राप्त की थी ।
रोडग के युद्ध में बज्जलदेव को हराकर चामुण्डराय ने 'समरधुरंधर' की उपाधि अर्जित की। गोनूर के युद्ध में नोलम्ब राजों पर उसकी विजय उसे 'वीर मार्तण्ड' की पदवी से मण्डित कर गयी । राजादित्य को उच्छंगी के दुर्ग में बन्दी बनाने पर उसे ' रणरंगसिंह' कहा गया और बागेयूर के दुर्ग में त्रिभुवन वीर को हराकर उस दुर्ग का आधिपत्य गोबिन्दार को दिलाने पर वह 'बैरिकुल - कालदण्ड' कहलाने लगा । उसी प्रकार अपने सैन्य जीवन की अन्य अनेक सफलताओं के स्मृति स्वरूप चामुण्डराय ने 'भुजविक्रम', समरकेसरी', 'प्रतिपक्ष-राक्षस', 'सुभटचूडामणि' और 'समर - परशुराम' आदि अनेक उपाधियाँ धारण की थीं । सचमुच वह एक अद्भुत वीर पुरुष था ।
गोमटेश - गाथा / ३१