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९. दर्शन की अभिलाषी आँखें
सात दिवस के लिए यात्रा की आकुलता से मुक्त होकर, संघ यहाँ थिर हो गया था। पूजा-पाठ, प्रवचन और पठन-पाठन आदि कार्यक्रम, प्रायः दिन-भर चलते थे। काललदेवी अपनी पुत्रवधू अजितादेवी के साथ, नित्य प्रातः चन्द्रगुप्त बसदि में भगवान की पूजन करने के उपरान्त, आचार्यश्री का उपदेश सुनतीं। चामुण्डराय की भोजनशाला में सभी अभ्यागतों को आदरपूर्वक भोजन कराया जाता। यह व्यवस्था सरस्वती स्वयं देखती थीं।
इतना सब होते हुए भी काललदेवी, चामुण्डराय और आचार्य महाराज, तीनों का चित्त, अस्थिर रहता था। बाहुबली भगवान् के दर्शन की अभिलाषा लेकर यह यात्रा प्रारम्भ की गई थी। पोदनपुर के मार्ग में एक दिन का भी विलम्ब चामुण्डराय को असह्य लगता था। काललदेवी का मन सबसे अधिक आकुलित था। उन्हें अपनी आयु बहुत थोड़ी शेष दिखाई देती थी। वे शरीर छोड़ने के पहले बाहुबली भगवान् की छवि का एक बार भरभर दर्शन कर लेना चाहती थीं। भर नयन उनकी अकम्प मुद्रा को निहारने की लालसा, काललदेवी की अन्तिम अभिलाषा थी। वही उनका एकमात्र संकल्प था। जबसे उन्होंने बाहुबली की कथा और भरत द्वारा स्थापित प्रतिमा का वर्णन सुना था, तब से बाहुबली उनकी कल्पना में बस गये थे। उनके क्षीण-ज्योति नेत्र, प्रति समय चारों ओर उस छवि को ढूँढ़ते-से लगते थे। खुली आँखों से भले ही आराध्य का वह रूप उन्हें दिखाई नहीं देता था, परन्तु आँखें बन्द करते ही, कल्पना में बसी वह मनोहर छवि, उनके सामने साकार हो जाती थी। अनेक बार मन्दिर में बैठकर जब वे भगवान् का ध्यान करने लगतीं, तब ध्यानस्थ होते ही उनके सामने से तीर्थंकर प्रतिमा तिरोहित हो जाती और उसके स्थान