________________
दशा इन स्वप्नों के उपरान्त और भी अशान्त हो गयी। उनके मन का वैराग्य, समुद्र में ज्वार की तरह हिलोरें लेने लगा। ___ एक दिन बड़े महोत्सवपूर्वक बिन्दुसार के मस्तक पर अपना मुकुट धर कर उन्होंने वैराग्य का संकल्प कर लिया। समस्त परिजनों, पुरजनों और प्रजाजनों के प्रति, समतापूर्वक क्षमाभाव दर्शाते हुए, सबके प्रति समताभावपूर्वक उन्होंने आचार्य भद्रबाहु से दिगम्बरी मुनि-दीक्षा धारण कर ली।
अब वे समस्त परिग्रह से रहित, निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिराज, दिन में एकबार खड़े-खड़े, बद्ध अंजलिपुट में लेकर स्वल्प आहार करते और वन की किसी गुफा या शैलाश्रय आदि में निर्भीक होकर तपस्या करने लगे। योग
और ध्यान का उन्होंने शीघ्र ही अच्छा अभ्यास कर लिया। सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ अनेक पुरुषों ने मुनि-दीक्षा धारण की थी। वे सभी मुनि भद्रबाह के इस विशाल संघ के साथ, उत्तरापथ से इस ओर आने के लिए प्रस्थित हए।
दक्षिणापथ पर चन्द्रगुप्त का यह प्रथम पदार्पण नहीं था। इसके पूर्व अपनी दिग्विजय यात्रा में, उनकी अपराजेय चतुरंगिणी, समूचे दक्षिणापथ को रौंद चुकी थी। पूर्व से पश्चिम तक, समुद्र से समुद्र तक की सारी भूमि, उस यात्रा में उनके साम्राज्य का अंग बन चुकी थी। गिरिनार की चन्द्रगुफा और सुदर्शन झील के शिलांकन आज भी उनकी उस विजययात्रा के प्रमाण हैं। इस प्रकार तीन खण्ड पृथ्वी पर एकाधिकार स्थापित करनेवाले अर्द्धचक्री राजाओं के उपरान्त, इतने बड़े भूमिभाग को अपने साम्राज्य के अन्तर्गत लानेवाले, चन्द्रगुप्त ही प्रथम और अन्तिम सम्राट थे।
इस बार चन्द्रगुप्त की यह द्वितीय दक्षिण-यात्रा, एक विलक्षण यात्रा थी। अब वे मौर्य साम्राज्य के सीमा विस्तार के लिए 'विजययात्रा' पर नहीं निकले थे, वरन् स्व-साम्राज्य का स्वामित्व पाकर, श्रमण संस्कृति के प्रचार और प्रसार के लिए 'विहार' कर रहे थे। अब उनके साथ चतुरंगिणी की नहीं, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-रूप चार आराधनाओं की शक्ति थी। अब पूर्व-पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, इन चार दिशाओं की विजय के लिए नहीं, क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार कषायों को जीनने के लिए उनका यह अभियान था। अब धनुष-बाण और तलवार के स्थान पर सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र के रत्नत्रय का त्रिशूल ही उनका अस्त्र था। जन-मन को आतंकित करनेवाले राजदण्ड के स्थान पर, अब उनके हाथों में जीव मात्र के लिए अभय का आश्वासन देने वाली
गोमटेश-गाथा | २५