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यिनी निवास, इसी योजना का प्रथम चरण था।
सम्राट के उज्जयिनी पहुँचने पर, उसी वर्ष ऐसा सूयोग हआ, कि उसके गुरु आचार्य भद्रबाहु ने, उज्जयिनी में ही अपना वर्षावास स्थापित किया। चार मास तक गुरु के सान्निध्य में दार्शनिक ऊहापोह का दुर्लभ अवसर, चन्द्रगुप्त को इस वर्षायोग में प्रतिदिन प्राप्त होता रहा। गुरु के प्रति अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति होते हुए भी, चन्द्रगुप्त के व्यस्त जीवन में ऐसे अवसर बहुत कम आये थे, जब निश्चिन्त और निर्द्वन्द्व भाव से गुरुवाणी का श्रवण करने की, उस पर चिन्तन-मनन करने की सुविधा उन्हें उपलब्ध हुई हो। इस बार दार्शनिक पृष्ठ-भूमि में संसार की स्थिति का वास्तविक आकलन करने का अवसर सम्राट को प्राप्त हुआ। वीतराग, निर्ग्रन्थ आचार्य की जीवनपद्धति को भी पहली बार उन्होंने निकट से देखा। आचरण में अहिंसा, वाणी में स्याद्वाद और चिन्तन में अनेकान्त का समावेश हो जाने पर, मनुष्य का जीवन कितनी महानताओं से मण्डित हो जाता है, वह चमत्कार वे प्रत्यक्ष देख रहे थे। समता परिणामों से जिस निराकुलता की प्राप्ति होती है, उसका अनुभव उन्हें हो रहा था।
चातुर्मास के थोड़े दिन शेष थे तब एक दिन, रात्रि के पिछले प्रहर में सम्राट चन्द्रगुप्त ने सोलह दु स्वप्न देखे । आचार्य महाराज ने निमित्त ज्ञान के आधार पर इन स्वप्नों का जो अर्थ कहा, उस वाणी ने सम्राट के भीतर पनपती हुई वैराग्य की भावना को और प्रोत्साहित कर दिया।
भद्रबाहु आचार्य ने सम्राट के स्वप्नों का विश्लेषण करके इस प्रकार भविष्यवाणी की
'डूबते हुए सूर्य का दर्शन इस बात का संकेत है, कि महावीर के मार्ग को प्रकाशित करने वाला आगम का ज्ञान उत्तरोत्तर अस्त होता हुआ समाप्त होगा।
कल्पवृक्ष का शाखा भंग बतलाता है कि भविष्य में राजपुरुष वैराग्य धारण नहीं करेंगे।
सछिद्र चन्द्रमण्डल का अर्थ यही है कि विधर्मियों और नास्तिकों द्वारा धर्म का मार्ग छिन्न-भिन्न किया जायेगा।
बारह फणवाला सर्प अपने अस्तित्व से स्वप्न में घोषित कर गया है कि इस उत्तरापथ में बारह वर्ष के लिए भीषण दुर्भिक्ष होगा।
लौटता हुआ देवविमान कहना चाहता है कि अब इस काल में देव, विद्याधर और ऋद्धिधारी संतों का अवतरण पृथ्वी पर नहीं होगा।
दूषित स्थान में खिले हुए कमल से फलित होता है कि कुलीन और
गोमटेश-गाथा | २३