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करण नहीं था, किसी का भोगा हुआ विभव नहीं था। यह वह सिंहासन था, जिसका निर्माण चन्द्रगुप्त ने अपने पुरुषार्थ से किया था। हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तक, दक्षिणावर्त आर्यावर्त और उसकी सीमाओं के पार तक, एक-एक अंगुल भूमि पर अपनी भुजाओं के बल से ही चन्द्रगुप्त ने अपनी प्रभुता स्थापित की थी। वह साम्राज्य सही अर्थों में उसका 'स्वभुजोपार्जित' साम्राज्य था। ___ इतने बड़े साम्राज्य के विधिवत् संचालन के लिए चन्द्रगुप्त ने प्रान्तीय राजधानियों की स्थापना की थी, जहाँ से उसके राज्यपाल शासन-सूत्र का संचालन करते थे। गृह-प्रदेश में पाटलिपुत्र से सम्राट स्वयं शासन की बल्गा सम्हालते थे। यूनानी राजा सेल्यूकस से जीते हुए सीमावर्ती प्रान्तों का शासन कपिशा से होता था। तक्षशिला उत्तरापथ की राजधानी थी। दक्षिणापथ पर सम्राट का शासन सूवर्ण गिरि से संचालित होता था। गिरिनगर में बैठकर उसका राज्यपाल तुषास्प, सौराष्ट्र पर शासन करता था और पश्चिमी भारत के शासन का संचालन उज्जयिनी से होता था। __चन्द्रगुप्त के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ घटी थीं जिनसे उसे चिन्तन के अनेक आयाम प्राप्त हुए थे। नन्दों का मूलोच्छेद करके उसने अपने हाथों ही एक शक्तिशाली राजवंश को इतिहास के गर्त में गाड़ दिया था। दक्षिणावर्त की विजय के अभियान में उसने महाराष्ट्र, कोंकण, आन्ध्र और कर्नाटक की राजकीय ध्वजाओं को अपने चरणों में नत किया। मध्य एशिया के शक्तिशाली यूनानी राजा सेल्यूकस की सेनाओं को युद्धक्षेत्र में पराजित करके काबुल, हेरात, कन्दहार और बलूचिस्तान पर भी अपने साम्राज्य के सीमा-चिह्न उसने स्थापित किये। इस प्रकार उस प्रतापी सम्राट ने अपनी मातृभूमि के सीमान्तों से भी विदेशी सत्ता का उन्मूलन कर दिया था।
चन्द्रगुप्त की राज्य-सीमाओं को आदर्श मानकर ही, कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ में चक्रवर्ती क्षेत्र की परिभाषा का विधान किया। उत्तरापथ के अनेक यात्रियों ने समय-समय पर मेरे देवालयों में जो मुद्राएँ अर्पित की हैं, उनमें मौर्य सम्राट के द्वारा प्रचलित की गई अनेक मुद्राएँ मैंने देखी हैं। त्रिरत्न, चैत्यवृक्ष और दीक्षावृक्ष आदि अनेक जैन प्रतीक इन मुद्राओं पर अंकित हैं।
राजनीति के संचालन में किस प्रकार राजे और सम्राट कठपुतली बनकर रह जाते हैं, सिंहासन की मर्यादा कितनी पराधीनताओं में उन्हें जकड़ देती है, यह अनुभव चन्द्रगुप्त प्राप्त कर चुके थे। तात्कालिक कट
गोमटेश-गाथा / २१