________________
५. मेरे महान्
अतिथि : राजर्षि
चन्द्रगुप्त मौर्य
श्रुतवली आचार्य भद्रबाहु के शिष्य, चन्द्रगुप्त मुनिराज ने भी, द्वादश वर्षों की कठोर साधना के उपरान्त, अपने गुरु के चरण-चिह्नों की वन्दना करते हुए, वैसी ही निर्मम साधनापूर्वक, यहीं, इसी गुफा देहोत्सर्ग किया ।
में
मैंने देखा और सुना है पथिक ! महावीर के पश्चात् इस देश का अनेक शताब्दियों का राजनैतिक इतिहास, इसी श्रमण-संस्कृति का इतिहास है। श्रेणिक बिम्बसार के सम्बन्ध में महावीर का आख्यान अत्यन्त मुखर है। उपरान्त थोड़े-बहुत व्यवधान को छोड़कर उत्तरापथ के राज्याध्यक्षों और सम्राटों का मस्तक जैन मुनियों के चरणों में सदैव नमनशील रहा है। जैन संस्कृति के संरक्षण में इन सबका महत्वपूर्ण योगदान रहा है । मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त इसी श्रृंखला की एक कड़ी थे ।
आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त के कुल गुरु थे । चाणक्य और चन्द्रगुप्त दोनों पर उनका बड़ा प्रभाव था । यही कारण था कि इन दोनों महापुरुषों ने जीवन के अन्त में समस्त परिग्रह का त्याग करके मुनि दीक्षा स्वीकार की । चन्द्रगुप्त मुनिराज यहाँ तपस्या करते हुए, अपने गुरु भद्रबाहु को प्रायः स्मरण किया करते थे । गुरु का नामोल्लेख करते हुए श्रद्धा से उनका हृदय गद् गद् हो उठता था और अनायास ही उनके दोनों हाथ नमस्कार की मुद्रा में मस्तक तक पहुँच जाते थे ।
चन्द्रगुप्त इस विशाल देश के साम्राज्य को त्याग कर, दुर्लभ राजसी भोगों को ठुकराकर, इस कठिन साधना मार्ग में दीक्षित हुए थे । जब वे मेरे इस कठोर धरातल की, नंगी चट्टानों पर बैठते या घड़ी दो घड़ी शयन करते, आठ प्रहर में केवल एक बार, जब वे अपने फैले हुए हाथों में भिक्षान्न ग्रहण करके, उस नीरस भोजन से उदर पोषण करते थे, तब