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ति में प्रयुक्त होने वाली विषकन्याओं से चन्द्रगुप्त के जीवन की सुरक्षा के लिए, उन्हें बताये बिना, चाणक्य उनके भोजन में सन्तुलित विष का प्रयोग करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने चन्द्रगुप्त को विष का ऐसा अभ्यस्त बना दिया, जिससे विषकन्याओं का सम्पर्क उन्हें हानि न पहुँचा सके । एक दिन अपने उसी क्वचित् विषाक्त भोजन का एक ग्रास, कौतुक और स्नेहवश, उन्होंने अपनी प्रिया को खिला दिया । क्षणमात्र में ही उस गर्भवती रानी पर विष का प्रभाव परिलक्षित होने लगा । चाणक्य ने शल्य चिकित्सा के साधन जुटाकर गर्भस्थ शिशु को जीवित बचा लिया, किन्तु रानी की प्राण-रक्षा नहीं हो सकी । विष के प्रभाव से मस्तक पर एक श्याम बिन्दु लेकर अवतरित हुआ वही बिन्दुसार, युवा होकर, साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ ।
आज एक दीर्घ अन्तराल के उपरान्त भी, अपनी उस प्राणवल्लभा की, मरणवेदना से छटपटाती हुई देह का स्मरण कर चन्द्रगुप्त काँप जाते थे । अन्त समय उसके नेत्रों की निरीहता ने और उसकी विवशता ने महीनों तक चन्द्रगुप्त का निद्रावरोध किया था। जब-जब वे ऐसा सोचते कि षड़यन्त्र भरी राजनीति के चक्र का एक निर्जीव-सा यन्त्र बन जाने के कारण ही, उन्हें वह अप्रिय घटना झेलनी पड़ी थी, वह दारुण दुःख उठाना पड़ा था, तब अपने साम्राज्य की अटूट सम्पदा के प्रति उनका मन विरक्ति से भर उठता था ।
सम्राट् चन्द्रगुप्त अपने निष्कण्टक सिंहासन पर बैठकर, अनेक बार विचार करते थे—
‘असीम आकांक्षाओं के वशीभूत होकर महत्वाकांक्षाओं की महाज्वाला में झुलसते हुए, साम्राज्य का यह प्रासाद खड़ा किया, परन्तु यह तो मन को सुख का तनिक भी संवेदन नहीं दे पा रहा है। उल्टे उसके संरक्षण की आकुलता, अब उससे भी अधिक दाह पहुँचा रही है । सन्तोष के साथ परिग्रह का, निराकुलता के साथ वैभव और ऐश्वर्य का, क्या दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं ?'
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चिन्तन की इसी धारा का प्रभाव था जिसने चन्द्रगुप्त के जीवन की दिशा ही बदल दी । राजकाज वे करते थे परन्तु उसमें कोई आनन्द अब उनके लिए शेष नहीं था । राज्य, लक्ष्मी और भोगों के रस अब उन्हें बे-रस लगने लगे थे। चाणक्य की अनेक वर्जनाओं को टालते हुए उन्होंने साम्राज्य के संचालन से अपने आपको मुक्त करने का निर्णय लिया । अपने इस निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए एक सुदृढ़ योजना बनायी । विन्दुसार को पाटलिपुत्र का उत्तरदायित्व सौंपकर, चन्द्रगुप्त का उज्ज
२२ / गोमटेश-गाथा