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रहे हो, उसकी जगह तब वहाँ एक लघुकाय जिनालय था। उसी के प्रांगण में विराजमान थे उस दिन आचार्य भद्रबाहु, जब उनका साधुसंघ उनके श्रीचरणों में प्रणिपात करके, अपनी यात्रा पर अग्रसर हुआ। तब ये अनेक जिनालय यहाँ अस्तित्व में नहीं आये थे। यह प्राचीर भी तब नहीं बनी थी। नीचे सामने जहाँ वह कल्याणी सरोवर और आवास गहों की पंक्तियाँ दिखाई दे रही हैं, तब वहाँ नारिकेल और पूगीफल के विशाल वृक्षसमूह हो थे। यत्र तत्र सर्वत्र, दृष्टि की सीमा तक, उस दिन गमनोद्यत साधुओं का समूह ही यहाँ दृष्टिगोचर होता था। पिता के समान कल्याण चाहनेवाले, अपने महान् आचार्य की अन्तिम वन्दना करके, क्वचित् खिन्नता से भरा हुआ यतियों का वह समूह, निःशब्द और शान्त चला जा रहा था। अब उस संघ के नायक थे विशाखाचार्य।
भद्रबाह स्वामी को अपनी आयु की क्षीणता का पूर्वानुमान हो गया था। सल्लेखनापूर्वक, क्षेत्र-संन्यास धारण करके, वे उसी गुफा में समाधि साधना कर रहे थे। इस साधना में संलग्न वे तपस्वी, शरीर से जितने श्लथ, जितने कृश होते जा रहे थे, उनकी संकल्पशक्ति उतनी ही दृढ़ता प्राप्त करती जाती थी। महाराज अपनी दैनिकचर्या में अत्यन्त सावधान
और आत्मचिन्तन में सतत जागरूक थे। उनके जरा-जर्जर मुखमण्डल पर इधर एक अलौकिक दोप्ति दिखाई देने लगी थी। उग्र तपश्चरण से उत्पन्न तेज का एक सहज प्रकाशपुंज, उनके चतुर्दिक व्याप्त दिखाई देता था।
सम्राट चन्द्रगुप्त मुनिदीक्षा प्राप्त कर चुके थे। 'प्रभाचन्द्र' अब उनका नाम था। गुरु की सेवा के लिए वे प्रभाचन्द्र मुनिराज उनके समीप यहीं रहे। अनुपम निष्ठा-भक्तिपूर्वक वे समाधिकाल में गुरु-चरणों की सेवा-सुश्रूषा करते रहे। बारह वर्ष उपरान्त यहीं उनकी भी समाधि सम्पन्न हुई।
इस कुलिश कठोर चिक्कवेट्ट का वातावरण, उन योगिराज की महती साधना से निर्वैर और प्रभाभिभूत हो उठा था। तब यहाँ मृग
और मृगराज को एक ही स्थान पर शान्त निर्द्वन्द विचरते देखना मेरा नित्य का कुतूहल था। नृत्यरत मयूर-मण्डली के समक्ष फणधर व्यालों का डोलना, कोई अनूठी घटना नहीं रह गई थी। उनके सान्निध्य में प्रकृति और पुरुष, समता के एक अद्भुत आलोक का अनुभव करते थे। __उधर इस सबसे निस्पृह निर्लिप्त, भद्रबाहु स्वामी, अपनी एकान्त साधना में तल्लीन होकर, सल्लेखना के हवनकुण्ड में, अति निरपेक्ष भाव से एक-एक निषेक की आहुति दे रहे थे। शान्तिपूर्वक एक दिन प्रातः
गोमटेश-गाथा | १७