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असम्भव हो जायेगा। इस अकाल में मुनियों और त्यागियों को संयम पालन करने की अनुकूलता नहीं होगी। उन्हें अपने कठोर नियम त्यागने पड़ेंगे, या उनमें शिथिलता स्वीकार करनी पड़ेगी।' __ आचार्य भद्रबाहु समूचे जैन संघ के नायक थे। देश भर में फैला हुआ विशाल जैन साधु-समुदाय प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनके अनुशासन में निबद्ध था। महावीर की अचेलक परम्परा को अकाल के इस दुर्दान्त चक्र से बचाकर, निर्दोष रूप में प्रवर्तमान रखने का उत्तरदायित्व उस समय भद्रबाहु पर ही था। पूरे भारत की भौगोलिक और प्राकृतिक स्थितियाँ उनकी दृष्टि में थीं। वर्तमान समस्या के प्रति चिन्तित होते हए भी, भविष्य को वे भलीभाँति जान रहे थे। सारी परिस्थितियों पर विचार करके उन विवेकवान् आचार्य ने, उत्तरापथ के समूचे साधुसंघों के लिए आदेश प्रसारित किया___ 'उत्तरापथ में बारह वर्ष की अवधि का दारुण दुर्भिक्ष होगा। संयम की साधना और मुनिपंद की रक्षा यहाँ असंभव हो जायेगी। सभी साधुओं को उचित है कि तत्काल उत्तरापथ छोड़कर दक्षिण की ओर प्रस्थान करें। कर्नाटक और तमिल देशों में वातावरण उपयुक्त है। वहाँ प्रकृति सामान्य रहेगी। संयम की साधना में कोई प्राकृतिक व्यवधान दक्षिणापथ में उपस्थित नहीं होगा।'
साधु-समुदाय के अधिकांश मुनियों ने इस घोषणा को गुरु-आज्ञा की तरह स्वीकार किया। अपने आचार्य द्वारा घोषित भविष्यवाणी की सत्यता पर उन्हें तनिक भी सन्देह नहीं था। शततः योजनों से विहार कर-करके, भारी संख्या में मुनियों के समूह निर्धारित अवधि के भीतर, निश्चित स्थानों पर एकत्र हो गये। हादश सहस्र मुनियों के समुदाय के साथ, श्रतकेवली आचार्य भद्रबाह ने, उत्तरापथ का त्याग करके इस ओर प्रस्थान किया। इस संघ में श्रावक भी बड़ी संख्या में साथ चल रहे थे। सम्राट चन्द्रगुप्त स्वयं अपने पुत्र बिन्दुसार को सिंहासन सौंपकर, संसार, देह और भोगों से विरक्त होते हुए, आचार्य के अनुगामी हुए। तुम्हारे पुराणकार और इतिहासकार एक मत से स्वीकार करते हैं कि देशान्तर के लिए इतने बड़े साधु समुदाय का वह प्रस्थान 'न भूतो न भविष्यति' ही था।
उत्तरापथ में कुछ साधुओं ने आचार्य भद्रबाहु के आदेश की अवज्ञा कर दी। उन्होंने गुरु की आज्ञा पालने में प्रमाद किया, पर दुभिक्षकाल में वे अपने संयम की रक्षा नहीं कर पाये। कालान्तर में उनके आचरण में शिथिलताओं और विकृतियों का समावेश होता गया। परिस्थितियों
गोमटेश-गाथा | १५