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४. मेरे महान अतिथि : समाधिनिष्ठ आचार्य भद्रबाहु
पंथी ! आज मुझे स्मरण आती है वह महान् घटना जब तुम्हारे अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु अपने विशाल संघ सहित यहाँ पधारे थे। उज्जयिनी से कई माह की दीर्घयात्रा करके, यहाँ पहुँचे थे वे महामुनि। बहुत तेजस्वी था उनका व्यक्तित्व और बड़ा ही विशाल था उनका संघ । द्वादश सहस्र दिगम्बर मुनिराजों का एक साथ दर्शन करने का मेरे लिए वह प्रथम और अन्तिम अवसर ही था । उस साधु संघ के पधारने से सचमुच मैं धन्य हो उठा था। प्राचीन मन्दिरों से युक्त, निराकूल साधनाभूमि के रूप में, मेरी जो ख्याति देश-देशान्तर में फैल चकी थी, वही मेरे उस सौभाग्य का कारण बनी थी। ___ अभी कल की ही बात है, इसी पंथ से जाते हुए तुम्हारे कुछ बन्धुबान्धव कह रहे थे--'आचार्य भद्रबाहु के पधारने से इस चिक्कवेट्ट की बड़ी ख्याति हुई।' मैं तब यदि मुखर हो पाता तो ऐसा उनसे कहलवाता कि--'चिक्कवेट का यह छोटासा पर्वत, पूर्व में ही इतना विख्यात था, कि इसकी कीर्ति सुनकर ही भद्रबाहु महाराज ने उत्तरापथ से इसे अपना गन्तव्य बनाया और अपनी सल्लेखना की साधना के लिए चुना।'
आचार्य भद्रबाह, तीर्थंकर महावीर की परम्परा के अन्तिम श्रुतकेवली थे। तप के बल से अपने अज्ञान को निःशेष करके जो तपस्वी पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तीनों लोकों को, तीनों काल के सन्दर्भ में जो जान लेते हैं, सकल चराचर जगत् अपनी भूत, भविष्यत् और वर्तमान की दशा सहित स्वयं जिनके ज्ञान में प्रत्यक्ष प्रतिभासित होने लगता है, और जो अपने उसी जन्म से मोक्ष प्राप्त करनेवाले होते हैं, उन्हें केवली या केवलज्ञानी कहा जाता है। जो महामुनि तीर्थंकर की द्वादशांग वाणी