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सिद्ध चरणों का साक्षात् स्पर्श बार-बार मुझे पावनता प्रदान करता रहा।
श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु की समाधि के उपरान्त उनके पद-चिह्नों की वन्दना का संकल्प लेकर, भद्रबाहु की समाधि-गुफा में बैठकर एक बार ध्यान करने की अभिलाषा लेकर, तुम्हारी मूल परम्परा के प्रायः सभी महान् आचार्य समय-समय पर यहाँ पधारते रहे हैं। अपने पावन चरणों के पुण्य स्पर्श से मुझे पवित्र करते रहे हैं।
संघनायक विशाखाचार्य दो बार वहाँ पधारे। षट्खण्डागम के सूत्रकार पुष्पदन्त और भूतबलि ने भी भद्रबाहु के चरणों की वन्दना की। आचार्य पद्मनन्दि, जिन्हें तुनकुन्दकुन्दाचार्य कहते हो, कभी इन्हीं कंदराओं में बैठकर अपने पाहुड ग्रन्थों का पाठ करते थे। गृद्ध-पिच्छ आचार्य उमा स्वामी ने महीनों तक भद्रबाहु गुफा में ध्यान किया। तुम्हारे इतिहास के सबसे बड़े तार्किक विद्वान्, गमकगुरु स्वामी समन्तभद्र को इस ऋषिगिरि का शान्त-निराकुल वातावरण साधना के लिए बहुत उपयुक्त लगता था। अपने शिष्यों के समक्ष गंधहस्ति-महाभाष्य और षटखण्डागम की विवेचना करते हुए, कई बार मैंने उन्हें सुना है। __आचार्य पूज्यपाद मुनि-दीक्षा के पूर्व एक कुशल वैद्य थे। तीर्थ-वन्दना के साथ-साथ तब, दुर्लभ वनस्पति औषधियों की शोध में यहाँ भटकते भी मैंने उन्हें देखा है। मुनि-अवस्था में 'सर्वार्थसिद्धि' शास्त्र की रचना में संलग्न उनका सौम्य, अध्येता व्यक्तित्व तो आज तक मुझे प्रत्यक्ष-सा दिखाई देता है। इन आचार्यों के उपरान्त भी मुझे पवित्र करने वाले मुनियों, आचार्यों की दीर्घ नामावली मेरे स्मृति-पटल पर अंकित है। आचार्य वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र, इन तीन गुरु-शिष्यों ने, अपनी महती श्रुतसेवा करते हुए, इस चन्द्रगिरि की वन्दना के लिए जो पुरुषार्थ किया उस सबका उल्लेख तुम्हारे शिला-लेखों में उपलब्ध है। सिद्धान्तचक्रवर्ती, श्रुतज्ञ आचार्य नेमीचन्द्र ने तो मुझे ही अपनी साधना-भूमि बनाया। गोम्मटसार, द्रव्यसंग्रह और त्रिलोकसार का अधिकांश लेखन यहीं हुआ।
जिन-जिन करुणायतन मुनिराजों ने, अपनी पावन चरणरज से मेरी यह नीरस और कठोर देह पवित्र की है, उनके परिमाण को संख्या में बांधना सम्भव ही नहीं है। इतना जानता हूँ कि मेरा एक-एक कण, निर्ग्रन्थ वीतराग मुनियों के ईर्यामर्यादित पग-विन्यास से प्रतिक्षण तप्त होता रहा है। मेरी ही गोद में उनके श्रम-श्थल शरीर को ऊष्मा और तपःपूत देह को शीतलता मिलती रही है।
गोमटेश-गाथा | ११