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सहस्र वर्षों से अधिक काल तक वह परम्परा यहाँ चलती ही रही। तुम्हारे द्वारा यंत्रों के माध्यम से ग्रन्थों का मुद्रण प्रारम्भ कर लेने पर उस पारम्परिक लेखन-कला का अवसान हो गया।
मुझे भली-भाँति स्मरण हैं वे दिन, जब अर्द्धशुष्क ताड़-पत्रों पर, तीक्ष्ण लौह-लेखनी द्वारा, अनेकों मुनिराज, कभी यहाँ और कभी विन्ध्यगिरि के एकान्त में बैठकर, आगम शास्त्रों का अंकन किया करते थे। उस लेखनी से ताड़पत्रों पर उनका लेखन उत्कीर्ण हो जाता था। पश्चात् उन पत्रों पर मसिलेप करके उस पर वस्त्र फेरकर स्वच्छ कर देने मात्र से, पूरा लेखन एक साथ मसि-अंकित स्पष्ट दिखाई देने लगता था।
मसिचर्ण निर्माण करने का कार्य श्रावक लोग कर देते थे। वनस्पतियों के योग से उसका निर्माण भी एक कला थी। नारिकेल की खर्परो को अनेक वनस्पतियों के साथ अर्द्ध-दग्ध करके, वे उसे अयष्क भाण्ड में, वनस्पतियों का ही रस डालकर प्रहरों पर्यन्त घोटते थे। इतने से ही मसिचूर्ण तैयार हो जाता था। इस चूर्ण में प्रासुक जल के मिश्रण से तत्काल ही वांछित मात्रा में मसिलेप बना लिया जाता। सुचिक्कण ताड़पत्रों पर इस प्रकार को मसि का अंकनआभायुक्त और स्थायी होता था। उत्कीर्ण ताड़-पत्रों पर मसिलेप करने के लिए और पुनः उन लिप्त पत्रों को स्वच्छ कर देने के लिए, श्रावकों के होनहार बालक एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ करते, यहाँ खड़े रहते थे। ___इस प्रक्रिया से सहस्रों ही ग्रन्थों का लेखन यहाँ मेरे समक्ष हआ है। पठन-पाठन और विचार-विमर्श के लिए अन्यत्र से भी अनेक शास्त्र समयसमय पर यहाँ लाये जाते रहे हैं।
तुम्हारी परम्परा का प्रथम शास्त्र, उस दिन तुम्हारे पूर्व पुरुष, बड़े महोत्सव के साथ यहाँ लाये थे। उधर, उस गुफा के पास ही, श्रुत की अर्चना का अनुष्ठान उस दिन यहाँ सम्पन्न हुआ। पार्श्ववर्ती सिद्धान्त बसदि में ही विराजमान कर दी थी उन्होंने अपनी वह श्रुतसम्पदा, जिसे तुम धवला, जयधवला और महाधवला कहते हो। वह षट्खण्डागम, वही कषायपाहुड, विधर्मियों की प्रलयंकारी दृष्टि से बचाकर शताब्दियों तक मेरी ही गोद में सुरक्षित रहा है।
गुरु
गुरु का सन्दर्भ सदैव मुझे एक आह्लादकारी पुलक प्रदान करता रहा है। देव और शास्त्र मेरे कोड में विराजमान रहकर भी मेरे लिए सदैव मर्यादा के एक सूक्ष्म आवरण से आच्छादित रहे। परन्तु गुरु के संयम
१० / गोमटेश-गाथा